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जैनदर्शन
आदिके आरम्भ में जुट जाना भौतिकयंत्रका काम नहीं हो सकता । कोई भी यन्त्र अपने आप चले, स्वयं बिगड़ जाय और बिगड़ने पर अपनी मरम्मत भी स्वयं कर ले, स्वयं प्रेरणा ले, और समझ-बूझकर चले, यह असंभव है ।
कर्त्ता और भोक्ता :
आत्मा स्वयं कर्मों का कर्त्ता है और उनके फलोंका भोक्ता है । सांख्यकी तरह वह अकर्त्ता और अपरिणामी नहीं है और न प्रकृतिके द्वारा किये गए कर्मोंका भोक्ता ही । इस सर्वदा परिणामी जगत् में प्रत्येक पदार्थका परिणमन-चक्र प्राप्त सामग्री से प्रभावित होकर और अन्यको प्रभावित करके प्रतिक्षण चल रहा है । आत्माकी कोई भी क्रिया, चाहे वह मनसे विचारात्मक हो, या वचनव्यवहाररूप हो, या शरीरकी प्रवृत्तिरूप हो, अपने कार्मण शरीरमें और आसपास के वातावरण में निश्चित असर डालती है । आज यह वस्तु सूक्ष्म कैमरा यन्त्रसे प्रमाणित की जा चुकी है । जिस कुर्सीपर एक व्यक्ति बैठता है, उस व्यक्ति के उठ जानेके बाद अमुक समय तक वहाँके वातावरणमें उस व्यक्तिका प्रतिबिम्ब कैमरेसे लिया गया है । विभिन्न प्रकार के विचारों और भावनाओंकी प्रतिनिधिभूत रेखाएँ मस्तिष्क में पड़ती हैं । यह भी प्रयोगों सिद्ध किया जा चुका है।
चैतन्य इन्द्रियों का धर्म भी नहीं हो सकता; क्योंकि इन्द्रियोंके बने रहनेपर चैतन्य नष्ट हो जाता है । यदि प्रत्येक इन्द्रियका धर्म चैतन्य माना जाता है; तो एक इन्द्रियके द्वारा जाने गये पदार्थका इन्द्रियान्तरसे अनुसन्धान नहीं होना चाहिए । पर इमलीको या आमकी फाँकको देखते ही जीभमें पानी आ जाता है । अतः ज्ञात होता है कि आँख और जीभ आदि इद्रियोंका प्रयोक्ता कोई पृथक् सूत्र संचालक है । जिस प्रकार शरीर अचेतन है उसी तरह इन्द्रियाँ भी अचेतन हैं, अतः अचेतनसे चैतन्यको उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि हो; तो उसके रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदिका अन्य चैतन्यमें उसी तरह होना चाहिए, जैसे कि मिट्टीके रूपादिका अन्वय मिट्टी से उत्पन्न घड़े में होता है ।
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तुरन्त उत्पन्न हुए बालक में दूध पीने आदिकी चेष्टाएँ उसके पूर्वभवके संस्कारों को सूचित करती हैं । कहा भी है-
" तदहर्जस्त नेहातो रक्षोदृष्टेः भवस्मृतेः । भूतानन्वयनात् सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥”
अर्थात्–तत्काल उत्पन्न हुए बालककी आदिके सद्भावसे, परलोकके स्मरणसे और
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- उद्धृत, प्रमेयरत्नमाला ४।८ । स्तनपानकी चेष्टासे, भूत, राक्षस भौतिक रूपादि गुणोंका चैतन्यमें
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