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________________ षद्रव्य विवेचन हमारे सामने है | अनुभव सिद्ध कार्यकारणभाव हमें उसे संकोच और विस्तारस्वभाववाला स्वभावतः अमूर्तिक द्रव्य माननेको प्रेरित करता है । किसी असंयुक्त अखण्ड द्रव्यके गुणों का विकास नियत प्रदेशों में नहीं हो सकता । यह प्रश्न किया जा सकता है कि जिस प्रकार आत्माको शरीरपरिमाण माननेपर भी देखने की शक्ति आँख में रहनेवाले आत्मप्रदेशोंमें ही मानी जाती है और सूँघने की शक्ति नामें रहनेवाले आत्मप्रदेशों में ही, उसी तरह आत्माको व्यापक मान करके शरीरान्तर्गत आत्मप्रदेशोंमें ज्ञानादि गुणोंका विकास माना जा सकता है ? परन्तु शरीरप्रमाण आत्मामें देखने और सुँघने की शक्ति केवल उन-उन आत्मप्रदेशों में ही नहीं मानी गई है, अपितु सम्पूर्ण आत्मामें । वह आत्मा अपने पूर्ण शरीरमें सक्रिय रहता है, अतः वह उन उन चक्षु, नाक आदि उपकरणोंके झरोखोंसे रूप और गंध आदिका परिज्ञान करता है । अपनी वासनाओं और कर्म - संस्कारोंके कारण उसकी अनन्त शक्ति इसी प्रकार छिन्न-विच्छिन्न रूपसे प्रकट होती है । जब कर्मवासनाओं और सूक्ष्म कर्मशरीरका संपर्क छूट जाता है, तब यह अपने अनन्त चैतन्य स्वरूपमें लीन हो जाता है । उस समय इसके आत्मप्रदेश अन्तिम समयके आकार रह जाते हैं; क्योंकि उनके फैलने और सिकुड़नेका कारण जो कर्म था, वह नष्ट हो चुका है; इसलिए उनका अन्तिम शरीर के आकार रह जाना स्वाभाविक ही है संसार अवस्थामें उसकी इतनी परतंत्र दशा हो गई है कि वह अपनी किसी भी शक्तिका विकास बिना शरीर और इन्द्रियोंके सहारे नहीं कर सकता है । और तो जाने दीजिए, यदि उपकरण नष्ट हो जाता है, तो वह अपनी जाग्रत शक्तिको भी उपयोग में नहीं ला सकता । देखना, सूँघना, चखना, सुनना और स्पर्श करना क्रियायें जैसे इन्द्रियोंके बिना नहीं हो सकतीं, उसी प्रकार विचारना, संकल्प और इच्छा आदि भी बिना मनके नहीं हो पाते; और मनकी गति-विधि समग्र शरीर-यन्त्रके चालू रहनेपर निर्भर करती है । इसी अत्यन्त परनिर्भरताके कारण जगत्के अनेक विचारक इसकी स्वतंत्र सत्ता मानने को भी प्रस्तुत नहीं हैं । वर्तमान शरीरके नष्ट होते ही जीवनभारका उपार्जित ज्ञान, कला-कौशल और चिरभावित भावनाएँ सब अपने स्थूलरूपमें समाप्त हो जातीं हैं । इनके अतिसूक्ष्म संस्कार -बीज ही शेष रह जाते हैं । अतः प्रतीति, अनुभव और युक्ति हमें सहज ही इस नतीजेपर पहुँचा देती हैं, कि आत्मा केवल भूतचतुष्टयरूप नहीं है, किन्तु उनसे भिन्न, पर उनके सहारे अपनी शक्तिको विकसित करनेत्राला स्वतंत्र, अखण्ड और अमूर्तिक पदार्थ है । इसकी आनन्द और सौन्दर्यानुभूति स्वयं इसके स्वतन्त्र अस्तित्वके खासे प्रमाण हैं । राग और द्वेषका होना तथा उनके कारण हिंसा ८ Jain Educationa International ११३ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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