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लोकव्यवस्था
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रहस्यमय नियमकी आवश्यकता है। विश्वके रोम-रोममें गति है। दो परस्पर विरोधी शक्तियोंका मिलना ही गति पैदा करनेके लिए पर्याप्त है। गतिका नाम विकास है । यह 'लेनिन' के शब्दोंमें कहिये तो विकास विरोधियोंके संघर्षका नाम है। विरोधी जब मिलेंगे तक संघर्ष जरूर होगा। संघर्ष नये सवरूप, नयी गति, नयी परिस्थिति अर्थात् विकासको जरूर पैदा करेगा। यह बात साफ है। विरोधियोंके समागमको परस्पर अन्तरव्यापन या एकता भी कहते हैं। जिसका अर्थ यह है कि वे एक ही (अभिन्न ) वास्तविकताके ऐसे दोनों प्रकारके पहलू होते हैं । ये दोनों विरोध दार्शनिकोंको परमार्थकी तराजू पर तुले सनातन कालसे एक दूसरेसे सर्वथा अलग अवस्थित भिन्न-भिन्न तत्त्वके तौर पर नहीं रहते बल्कि वह वस्तुरूपेण एक हैं-एक ही समय एक ही स्थान पर अभिन्न होकर रहते हैं। जो कर्जखोरके लिए ऋण है, वही महाजनके लिए धन है। हमारे लिए जो पूर्वका रास्ता है, वही दूसरेके लिए पश्चिमका भी रास्ता है। बिजलीमें धन और ऋणके छोर दो अलग स्वतंत्र तरल पदार्थ नहीं हैं । लैनिनने विरोधको द्वंद्ववादका सार कहा है । केवल परिमाणात्मक परिवर्तन ही एक खास सीमापर होने पर गुणात्मक भेदोंमें बदल जाता है।" जड़वादका एक और स्वरूप : __ कर्नल इंगरसोल प्रसिद्ध विचारक और निरीश्वरवादी थे। ये अपने व्याख्यानमें लिखते हैं' कि-मेरा एक सिद्धान्त है और उसके चारों कोनों पर रखनेके लिए मेरे पास चार पत्थर हैं। पहला शिलान्यास है कि-पदार्थ-रूप नष्ट नहीं हो सकता, अभावको प्राप्त नहीं हो सकता। दूसरा शिलान्यास है कि गति-शक्तिका विनाश नहीं हो सकता, वह अभावको प्राप्त नहीं हो सकती। तीसरा शिलान्यास है कि पदार्थ और गति पृथक-पृथक् नहीं रह सकती। बिना गतिके पदार्थ नहीं और बिना पदार्थके गति नहीं। चौथा शिलान्यास है कि जिसका नाश नहीं वह कभी पैदा भी नहीं हुआ होगा, जो अविनाशी है वह अनुत्पन्न है। यदि ये चारों बातें यथार्थ हैं तो उनका यह परिणाम अवश्य निकलता है कि-पदार्थ और गति सदा से हैं और सदा रहेंगे। वे न बढ़ सकते हैं और न घट सकते हैं। इससे यह भी परिणाम निकलता है कि न कोई चीज कभी उत्पन्न हुई है और न उत्पन्न हो सकती है और न कभी कोई रचयिता हुआ है और न हो सकता है। इससे यह भी परिणाम निकलता है कि पदार्थ और गतिके पीछे न कोई योजना हो सकती थी और न कोई बुद्धि । बिना गतिके बुद्धि नहीं हो सकती। बिना पदार्थके गति
१. स्वतन्त्र चिन्तन पृ० २१४-१५ ।
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