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________________ जैनदर्शन करना सम्भव न होता । विश्व स्वयं प्रेरित है । उसे किसी बाह्य प्रेरककी आवश्यकता नहीं है । ( ४ ) चौथा सिद्धान्त यह है कि रचना, योजना, व्यवस्था, नियमबद्धता अथवा सुसंगति वस्तुका मूलभूत स्वभाव है । हम जब भी किसी वस्तुका किंवा वस्तुसमुदायका वर्णन करते हैं तब वस्तुओंकी रचना, किंवा व्यवस्थाका ही वर्णन किया करते हैं । वस्तुमें योजना या व्यवस्था नहीं, इसका अर्थ यही होता है कि वस्तु ही नहीं । वस्तु है, इस कथनका यही अर्थ निकलता है कि एक विशेष प्रकारकी योजना और विशेष प्रकारकी व्यवस्था है । वस्तुकी योजनाका आकलन होना ही वस्तुस्वरूपका आकलन है । विश्वकी रचना अथवा योजना किसी दूसरेने नहीं की है | अग्नि जलाना स्वाभाविक धर्म है । यह एक व्यवस्था अथवा योजना है । यह व्यवस्था किंवा योजना अग्निमें किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा लाई हुई नहीं है । यह तो अग्निके अस्तित्वका ही एक पहलू है । संख्या, परिमाण एवं कार्यकारणभाव वस्तु स्वरूपके अंग हैं । हम संख्या वस्तुमें उत्पन्न नहीं कर सकते, वह वस्तुमें रहती ही है । वस्तुओंके कार्यकारणभावको पहिचाना जा सकता है किन्तु निर्माण नहीं किया जा सकता ।" जड़वादका आधुनिक रूप : ८८ महापण्डित राहुल सांकृत्यायनने अपनी वैज्ञानिक भौतिकवाद पुस्तकमें भौतिकवाद के आधुनिकतम स्वरूपपर प्रकाश डालते हुए बताया है कि “जगत्का प्रत्येक परिवर्तन जिन सीढ़ियोंसे गुजरता है वे सीढ़ियाँ वैज्ञानिक भौतिकवादकी त्रिपुटी हैं । ( १ ) विरोधी समागम ( २ ) गुणात्मक परिवर्तन और ( ३ ) प्रतिdear प्रतिषेध । वस्तुके उदरमें विरोधी प्रवृत्तियाँ जमा होती हैं, इससे परिवर्तनके लिए सबसे आवश्यक चीज गति पैदा होती है । फिर हेगेलकी द्वंद्ववादी प्रक्रियाके वाद और प्रतिवाद के संघर्षसे नया गुण पैदा होता है । इसे दूसरी सीढ़ी गुणात्मक परिवर्तन कहते हैं । पहले जो वाद था उसको भी उसकी पूर्वगामी कड़ी से मिलानेपर वह किसीका प्रतिषेध करनेवाला संवाद था । अब गुणात्मक परिवर्तन - आमूल परिवर्तन जबसे उसका प्रतिषेध हुआ तो यह प्रतिषेधका प्रतिषेध है । दो या अधिक, एक दूसरेसे गुण और स्वभावमें विरोधी वस्तुओंका समागम दुनियामें पाया जाता है । यह बात हरएक आदमीको जब तब नजर आती है । किन्तु उसे देखकर यह ख्याल नहीं आता कि एक बार इस विरोधी समागमको मान लेने पर फिर विश्व के संचालक ईश्वरकी जरूरत नहीं रहती । न किसी अभौतिक दिव्य, १. देखो, 'जड़वाद और अनीश्वरवाद' पृष्ठ ६० - ६६ । Jain Educationa International २. पृ० ४५-४६ । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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