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________________ आजीविका चलाते है उसे कर्मभूमि कहते है। कर्मभूमि मे जीव दान पुण्य आदि धर्म कार्य कर सकते है और सयम धारण करके मोक्ष भी प्राप्त कर सकते है। तीर्थकर आदि सभी महापुरुष कर्म-भूमि मे ही उत्पन्न होते है। अढाई द्वीप मे पाच भरत, पाच ऐरावत और पाच विदेह सबधी पद्रह कर्मभूमिया हैं। कर्माहार-नारकी जीवो के आहार को कर्माहार कहते है। कल्की-साधुजनो पर अत्याचार करने वाले धर्मद्रोही राजा को कल्की कहते । अवसर्पिणी के पचमकाल मे प्रत्येक एक हजार वर्ष के बाद एक-एक कल्की का जन्म होता है तथा प्रत्येक पाच सौ वर्ष के बाद एक-एक उपकल्की जन्म लेता है। इस प्रकार पूरे पचमकाल मे इक्कीस कल्की और उतने ही उपकल्की धर्मात्माओ पर अत्याचार करने के कारण प्रथम नरक जाते है। प्रत्येक कल्की के समय में साधु-सघ अत्यत अल्प रह जाता है। अंतिम कल्की के समय मात्र एक साधु, एक आर्यिका, एक श्रावक और एक श्राविका शेष रहते है जो समाधि-मरण ग्रहण करके स्वर्ग जाते है। इसके उपरात धर्म-कर्म से शून्य दुखमा-दुखमा नामक छठा काल प्रारभ होता है। कल्प-काल-दश कोडाकोडी सागर प्रमाण अवसर्पिणी और उतना ही उत्सर्पिणी, ये दोनो मिलकर अर्थात् बीस कोडाकोडी सागर प्रमाण एक कल्प-काल होता है। कल्पद्रुम-पूजा-चक्रवर्ती के द्वारा किमिच्छक-दान अर्थात् सभी को इच्छानुरूप दान देकर जो भगवान जिनेन्द्र की पूजा की जाती है उसे कल्पद्रुम पूजा कहते है। जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 67
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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