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एकत्व - वितर्क - अवीचार - मोहनीय कर्म को पूर्णत नष्ट करने के लिए साधु मन-वचन-काय रूप किसी एक योग में स्थित रहकर, अर्थ, व्यजन व योग के परिवर्तन से रहित होकर श्रुत के माध्यम से जो किसी एक द्रव्य, गुण या पर्याय का चितन करता है उसे एकत्व - वितर्क - अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान कहते है ।
एकत्वानुप्रेक्षा- "मै अकेला ही उत्पन्न होता हू, अकेला ही मरता हू,
अकेला ही कर्मो का उपार्जन करता हू और अकेला ही उन्हे भोगता हू, कोई भी स्वजन और परिजन मेरे जन्म, जरा और मरण आदि के कष्ट को दूर नहीं कर सकते, धर्म ही एकमात्र ऐसा है जो मेरा सहायक हे ओर मेरे साथ जाकर भवान्तर मे भी सहायक हो सकता हे, " - इस प्रकार बार-बार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा हे ।
एकभक्त - जीवन - पर्यत प्रतिदिन सूर्य के प्रकाश मे विधिपूर्वक एक ही बार आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना एकभक्त व्रत कहलाता है। यह साधु का एक मूलगुण है।
एकलविहारी - एकाकी विचरण करने वाले साधु को एकल-विहारी कहते है । पचम काल मे दीक्षा धारण करके अकेले रहना या अकेले विहार करना साधु के लिये प्रशसनीय नहीं है। तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, आचार कुशल, उत्तम सहनन के धारी, धैर्यवान विशिष्ट साधु को ही अकेले विहार की अनुमति, आचार्यो ने दी है।
एकविध अवग्रह - एक प्रकार के अथवा एक जाति के, एक या अनेक
60 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश