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है । यह क्रोध - मान-माया-लोभ इन चारो रूपो मे रहती है।
अप्रमत्त- संयत- जो साधु व्यक्त और अव्यक्त रूप समस्त प्रकार के प्रमाद से रहित है और रत्नत्रय से युक्त होकर निरतर आत्म-ध्यान
लीन रहते है वे अप्रमत्त-सयत कहलाते है । अप्रमत्त-सयत के दो भेद है - स्वस्थान- अप्रमत्त और सातिशय- अप्रमत्त। जो साधु उपशम या क्षपक श्रेणी चढने के सम्मुख है वे सातिशय- अप्रमत्त सयत कहलाते है, शेष साधु स्वस्थान - अप्रमत्त-सयत कहलाते है ।
अप्रशस्त निदान - तीव्र अहकार से प्रेरित होकर अपनी तपस्या के फलस्वरूप भविष्य मे उत्तम कुल, जाति, रूप और भोग-उपभोग की कामना करना अप्रशस्त निदान कहलाता है ।
अप्रशस्त - निःसरणात्मक- तैजस-बारह योजन लम्बे, नौ योजन चोडे, सूच्युगल के सख्यातवे भाग मोटे, रक्तवर्ण वाले, पृथिवी व पर्वतादि समस्त वस्तुओं को जला कर नष्ट करने मे समर्थ और साधु के वाये कन्धे से प्रगट होकर अभीष्ट स्थान तक फैलने वाले तैजस शरीर को अप्रशस्त- नि सरणात्मक-तैजस कहते है। यह अशुभ तेजस शरीर किसी कारणवश क्रोध के वशीभूत हुए तपस्वी साधु के शरीर से क्रोधाग्नि की तरह निकलता है।
अप्रशस्त-राग- भौतिक सुख-सुविधा की सामग्री के प्रति राग बढाने वाली कथा या बातचीत करने मे मन लगाए रहना अप्रशस्त राग है ।
अप्रथक् - विक्रिया- अपने शरीर को सिह, हिरण, हस, वृक्ष आदि अनेक रूपो मे परिवर्तित करने की सामर्थ्य होना अप्रथक् या एकत्व - विक्रिया कहलाती है । यह सामर्थ्य देव व नारकी जीवो मे जन्म से ही पायी
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 21