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________________ सावध-मन, वचन व काय के द्वारा होनेवाली हिसाजनक क्रिया को सावध कहते है। कृषि, व्यापार आदि छह सावध कर्म माने गए है। पूजा, अभिषेक आदि यद्यपि सावध है परन्तु धर्मध्यान में सहकारी और पुण्य रूप होने से श्रावक के लिए ग्राह्य है। सासादन-सम्यक्त्व-उपशम-सम्यक्त्व से पतित होकर जीव जव तक मिथ्यात्व में नहीं आता तब तक उसे सासादन-सम्यग्दृष्टी जानना चाहिए। यह सासादन-सम्यक्त्व नामक दूसरा गुणस्थान है। साव्यवहारिक-प्रत्यक्ष-इन्द्रिय और मन के द्वारा जो ज्ञान होता हे उसे साव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते है। लोक-व्यवहार में इसे प्रत्यक्ष कहा है परन्तु यह परोक्ष-ज्ञान है। सिद्ध-समस्त आठ कर्मों के बन्धन को जिन्होंने नष्ट कर दिया हे ऐसे नित्य निरजन परमात्मा ही सिद्ध कहलाते है। सिद्धि-सिद्धि का अर्थ प्राप्ति या उपलब्धि है । आत्मस्वरूप की प्राप्ति होना सिद्धि है। अथवा जो जीवो के हित की साधक होती है उसे सिद्धि कहते है। सुख-सुख आहाद रूप होता है । वह दो प्रकार का हे-इन्द्रिय-सुख ओर अतीन्द्रिय-सुख । इन्द्रिय-विषयों में प्रीति का अनुभव होना इन्द्रिय-सुख है। आत्म-स्वरूप के अनुभव से उत्पन्न ओर रागादि विकल्पो से रहित निराकुलता रूप अतीन्द्रिय सुख हे। सुन्दरी-तीर्थकर ऋषभदेव की पुत्री थी। अपने पिता में इन्होंने अकविद्या सीखी। अल्प-वय में ही विरक्त होकर भगवान ऋपभटव जेनदर्शन पारिमापिक कोश / 255
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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