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श्रावक कहते है। श्रावक की तीन विशेषताए होती है-वह श्रद्धावान, विवेकवान और सदाचारी होता है। श्रावक तीन प्रकार के हैपाक्षिक-श्रावक, नैष्ठिक-श्रावक और साधक-श्रावक। श्रावक-धर्म-1. दान, पूजा, शील और उपवास यह श्रावक-धर्म है। 2 पूर्वजो की कीर्ति की रक्षा करना, देव-पूजा, अतिथि-सत्कार, वन्धु-बान्धवो की सहायता और आत्मोन्नति मे सदा तत्पर रहना-ये श्रावक-धर्म है। श्री-'श्री' का अर्थ लक्ष्मी है। अर्हन्त भगवान के अनन्त चतुष्टय रूप अतरग-लक्ष्मी और समवसरण आदि बाह्य-लक्ष्मी को 'श्री' कहते है। श्रुतकेवली-द्वादशाग रूप समस्त श्रुतज्ञान को धारण करने वाले महर्षि को श्रुत-केवली कहते है। श्रुतकेवली सर्व आगम के ज्ञाता होते है अर्थात् द्रव्यश्रुत व भावश्रुत दोनो से सम्पन्न होते है। श्रुतज्ञान-1 मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ के अवलम्बन से तत्सम्बन्धी दूसरे पदार्थ का जो ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते है। 2 जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गए वचनो के अनुरूप गणधर आदि के द्वारा जो ग्रन्थ रचना की जाती है उसे श्रुत या श्रुतज्ञान कहते है। श्रुतज्ञान दो प्रकार का है-अङ्ग-प्रविष्ट और अङ्ग-वाह्य । आचाराङ्ग आदि बारह अग और चौदह पूर्व अङ्ग-प्रविष्ट के अतर्गत आते है तथा सामायिक, कृतिकर्म आदि अङ्ग-बाह्य नामक श्रुत है। सारा श्रुतज्ञान दो रूपो मे मिलता है-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत। जो अक्षरात्मक द्वादशाग है वह द्रव्यश्रुत है तथा इसे सुनने से जो स्वानुभव या स्वसवेदन ज्ञान उत्पन्न होता है वह भावश्रुत कहलाता है।
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 235