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________________ न करना, समस्त प्राणियो मे समता भाव रखना तथा रागद्वेष व मोह नहीं करना, ये शुक्ल- लेश्या के लक्षण हैं। शुद्धोपयोग - रागादि विकल्पो से रहित आत्मा की निश्चल दशा ही शुद्धोपयोग है। निश्चय रत्नत्रय से युक्त वीतरागी श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा गया है। शुभ तैजस - देखिए प्रशस्त नि सरणात्मक तैजस । शुभ - नामकर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर रमणीय होता है वह शुभ नामकर्म है। इससे विपरीत अशुभ नामकर्म है। शुभोपयोग - दया, दान, पूजा, व्रत, शील आदि रूप शुभ राग और चित्त प्रसाद रूप परिणाम होना शुभोपयोग है। शैक्ष- शिक्षाशील साधु को शैक्ष कहते है । शोक- उपकार करने वाले से सबध छूट जाने पर जो चित्त मे विकलता होती है उसे शोक कहते है । शौच - लोभ का त्याग करना शौच-धर्म है। जो मुनि इच्छाओ को रोककर और वैराग्य रूप विचारो से युक्त होकर आचरण करता है उसके शौच-धर्म होता है । शौचोपकरण - मुनिजनो के देह-शुद्धि मे सहायक कमण्डलु को शौचोपकरण कहते हैं । श्रमण - देखिए साधु । श्रावक - सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धा रखने वाले सद्गृहस्थ को 234 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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