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शीतलनाथ-दसवे तीर्थकर । भद्रपुर नगर के इक्ष्वाकुवशी राजा दृढरथ इनके पिता थे और रानी सुनन्दा माता थीं। इनकी आयु एक लाख वर्ष पूर्व थी, ऊचाई नब्बे धनुष और शरीर की कान्ति स्वर्ण के समान थी। एक दिन हिमपटल को क्षण भर में विलीन होते देखकर इन्हे वैराग्य हो गया और इन्होने जिनदीक्षा ले ली। तीन वर्ष तक कठिन तपस्या के उपरान्त इन्हे केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इनके संघ मे इक्यासी गणधर, एक लाख मुनि, तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाए, दो लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाए थीं। इन्होने सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया। शीलव्रतेष्वनतिचार-अहिसा आदि व्रतो की रक्षा के लिए क्रोधादि कषाय का त्याग करना शील है। व्रत और शील दोनो का निर्दोष पालन करना शीलव्रतेष्वनतिचार है। यह सोलह-कारण-भावना मे एक भावना है। शुक्लध्यान-रागादि विकल्प नष्ट हो जाने पर आत्मा मे जो निर्विकल्प-ध्यान की प्राप्ति होती है उसे शुक्लध्यान कहते है। जैसे मैल हट जाने से वस्त्र स्वच्छ होकर शुक्ल कहलाता है। उसी प्रकार कषाय रूपी मैल के नष्ट होने पर आत्मा के शुचि गुण के सम्बन्ध से इस ध्यान को भी शुक्लध्यान कहते है। शुक्ल-ध्यान के चार सोपान या भेद है-पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकत्व-वितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृत्ति । प्रथम दो शुक्ल ध्यान के स्वामी चौदह पूर्व के ज्ञाता मुनि होते है। शेष दो शुक्लध्यान केवली भगवान को होते है। शुक्ल-लेश्या-पक्षपात न करना, आगामी-काल मे भोग की आकाक्षा
जेनदर्शन पारिभाषिक कोश / 293