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________________ अजितजय की पुत्री ऐरा इनकी माता थी। इनकी आयु एक लाख वर्ष, ऊचाई चालीस धनुप ओर शरीर की कान्ति स्वर्ण के समान थी । कुमार काल के पच्चीस हजार वर्ष बीत जाने पर इनका राज्याभिषेक हुआ। एक दिन दर्पण में अपने दो प्रतिविव देखकर इन्हें वेराग्य हो गया। तब चक्रवर्ती का विपुल वेभव छोडकर इन्होंने जिनदीक्षा ले ली। सोलह वर्ष की तपस्या के उपरान्त इन्हे कवलज्ञान प्राप्त हुआ । इनके सघ में छत्तीस गणधर, वावन हजार मुनि, साठ हजार तीन सौ आर्यिकाए, दो लाख श्रावक व चार लाख श्राविकाए थीं। इन्होने सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया । शास्त्र - जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप धर्म का जिसमे प्रतिपादन किया गया है उसे आगम या शास्त्र कहते है । शास्त्र - दान - भव्य जीवो को श्रद्धापूर्वक शास्त्र भेट करना अथवा धर्मोपदेश देना ज्ञानदान या शास्त्रदान कहलाता है । शिक्षाव्रत - मुनि धर्म की शिक्षा पाने के लिए जो व्रत श्रावक के द्वारा ग्रहण किये जाते हे उन्हे शिक्षाव्रत कहते है । शिक्षाव्रत चार है - देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैय्यावृत्त्य या अतिथि संविभाग शीत - परीषह - जय - जिसने वस्त्र आदि आवरण का त्याग कर दिया है जो वृक्ष- मूल, नदी-तट या शिलातल आदि पर निवास करते हुए बर्फ गिरने या शीतल हवा चलने पर उसे समतापूर्वक सहन करता है उस साधु के यह शीत- परीषह - जय है । 292 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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