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________________ शम - काम क्रोधादि का शमन करना शम कहलाता है। शय्यापरीषह - जय - जो साधु स्वाध्याय, ध्यान अथवा मार्ग के श्रम से थककर कठोर भूमि पर एक करवट से शयन करता है, उपसर्ग आदि बाधा आने पर विचलित नहीं होता और बाधा को समतापूर्वक सहन करता है उसके यह शय्यापरीषह - जय है । शरीर - अनन्तानन्त पुद्गलो के समवाय का नाम शरीर है । अथवा जो विशेष नामकर्म के उदय से प्राप्त होकर निरन्तर जीर्ण-शीर्ण होता या गलता रहता है वह शरीर है । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण-ये पाच प्रकार के शरीर हैं । शरीर - नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव के औदारिक आदि शरीर की रचना होती है उसे शरीर - नामकर्म कहते है । शलाका - पुरुष - तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि प्रसिद्ध पुण्यवान पुरुषो को शलाका-पुरुष कहते है। चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र - ये त्रेसठ शलाका पुरुष हे । शल्य - शल्य का अर्थ पीडा देने वाली वस्तु है । जब शरीर में काटा आदि चुभ जाता है तो वह पीडादायक होने से शल्य कहलाता है । इसी प्रकार शरीर और मन सम्बन्धी पीड़ा का कारण होने से कमोदय -जनित विकारो को भी शल्य कहते है । शल्य तीन प्रकार की हे - माया- शल्य, मिथ्या- शल्य और निदान - शल्य | शान्तिनाथ - ये सोलहवे तीर्थकर और पाचवे चक्रवर्ती थे । हस्तिनापुर के कुरुवशी राजा विश्वसेन इनके पिता और गान्धार नगर के राजा जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 231
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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