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________________ पचाचार का पालन करना वीर्याचार कहलाता है। वीर्यान्तराय - द्रव्य की अपनी शक्ति विशेष का नाम वीर्य है। जिस कर्म के उदय से जीव किसी कार्य के प्रति उत्साहित होने की इच्छा होते हुए भी उत्साहित नहीं हो पाता या असमर्थता का अनुभव करता है उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते है । वृत्ति-परिसख्यान - आहार के इच्छुक साधु का एक, दो घर आदि विषयक सकल्प करना वृत्ति-परिसख्यान नाम का तप है। वृत्ति - परिसख्यान मे घर, दाता, वर्तन और भोजन इन चारो का परिसख्यान किया जाता है । जैसे- मे आज पाच घरो से अधिक नहीं जाऊगा या मै आज चार दाताओ से ही आहार लूगा या कासे के पात्र मे ही आज आहार लूगा अथवा आज चावल व मूग ही खाऊगा - ऐसी अनेक प्रकार की विधि या सकल्प लेना । वेद - आत्मा मे जो मेथुन या कामसेवन रूप चित्त - विक्षेप उत्पन्न होता हे उसे वेद कहते हे। इसका दूसरा नाम लिग भी है। वेद या लिग तीन प्रकार का है - स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद । यह तीनो वेद, द्रव्य व भाव रूप होते हे । नामकर्म के उदय से शरीर मे स्त्री-पुरुष के अनुरूप जो योनि, मेहन आदि की रचना होती हे वह द्रव्य-चंद हे । स्त्री, पुरुष व नपुसक इन तीनो मे जो परस्पर एक दूसरे की अभिलाषा होती हे वह भाव-वेद हे । एकेन्द्रिय से लेकर असज्ञी पचेन्द्रिय पर्यत सब जीवो के एकमात्र नपुंसक वेद है। मनुष्यो मे तीनो वेद हें। देवो मे स्त्री पुरुष ये दो वेद है। नारकी जीव के एकमात्र नपुसक वेद है। 224 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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