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________________ मूक-केवली कहलाते हैं। मूढ़ता-मूढता का अर्थ अविवेक है। यह तीन प्रकार की होती है-लोक-मूढता, देव-मूढता और गुरु-मूढता या समय-मूढता। मूर्छा-लोक मे मूर्छा का प्रचलित अर्थ वेहोशी है । जैनागम मे मूर्छा का अर्थ परिग्रह या ममत्व-भाव है। मूर्त-जो पदार्थ इन्द्रिय ग्राह्य है वे मूर्त हैं। अथवा जिसमे रूप रस आदि गुण पाए जाते हैं वह मूर्त है। छह द्रव्यो मे एकमात्र पुद्गल-द्रव्य मूर्त या रूपी है। मूलकर्म-दोष-जो वश मे नहीं है उनको कैसे वश मे करना, अथवा जो स्त्री-पुरुष अलग-अलग हो गए है उनका कैसे सयोग कराना-ऐसे मत्र-तत्र आदि उपाय बताकर यदि साधु गृहस्थ से आहार प्राप्त करे तो यह मूल-कर्म-दोष है। मूल-प्रायश्चित-साधु को पुन दीक्षा देना मूल-प्रायश्चित कहलाता है। अपरिमित दोष करने वाला जो साधु पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील या स्वच्छन्द होकर कुमार्ग मे स्थित है उसे यह प्रायश्चित दिया जाता है। मृगचारी-जो साधु अकेले ही स्वच्छन्द रीति से विहार आदि करते है ओर जिनेन्द्र भगवान के वचनो को दूषित करते हैं उनको मृगचारी या स्वच्छन्द कहा गया है। मृषानन्दी-तीव्र कषाय के वशीभूत होकर दूसरे को ठगने के लिए वडी चतुराई से झूठ बोलने की योजना बनाने मे लगे रहना और झूठ 200 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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