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हा जाते है । कुमति, कुश्रुत आर विभग-अवधिज्ञान ये तीनो मिथ्याज्ञान
मिथ्यात्व-क्रिया-मिथ्यात्व के उदय मे जो राग-द्वेष से मलिन देवी-देवताओ की स्तुति रूप क्रिया होती हे वह मिथ्यात्व-क्रिया है। मिथ्यादर्शन-मिथ्यात्व-कर्म के उदय से जो समीचीन तत्त्वो के विषय मे अश्रद्धान होता है वह मिथ्यादर्शन हे। अथवा अर्हन्त भगवान के द्वारा बताए गए मार्ग से विपरीत मार्ग मे श्रद्धान होना मिथ्यादर्शन हे। मिथ्यादर्शन-क्रिया-मिथ्यादर्शन के साधनो से युक्त पुरुष की प्रशसा आदि करके उसे मिथ्यात्व में दृढ करना मिथ्यादर्शन-क्रिया हे। मिय्यादृष्टि-मिथ्यात्व-कर्म के उदय से वशीकृत जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। अथवा जो दोषयुक्त देव को, हिसा से युक्त धर्म को
ओर परिग्रह मे लिप्त गुरु को मानता हे ओर आदर-सत्कार करता हे वह मिथ्यादृष्टि है। अथवा जो निष्परिग्रह यथाजात निग्रंथ रूप का देख कर मात्सर्य करता हे वह मिथ्यादृष्टि है। मिथ्याशल्य-मिथ्यात्व में रुचि रखते हुए व्रतो का पालन करना मिथ्याशल्य हे।
मिश्रगुणस्थान-दही ओर गुड के मिश्रित स्वाद के समान सम्यक्त्व
ओर मिथ्यात्व से मिश्रित-भाव को सम्यग्मिथ्यात्व कहते है। सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से जीव का तत्त्व के विषय में श्रद्धान और अश्रद्धान-भाव युगपत् होता है इसलिए इसे मिश्रभाव या मिश्र गुणस्थान भी कहते हैं। 198 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश