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________________ माया- दोष- साधु यदि छलपूर्वक आहार ले तो यह माया नाम का दोष है । मायागता - चूलिका - जिसमे इन्द्रजाल आदि के कारणभूत मत्र और तपश्चरण का वर्णन किया गया है वह मायागता - चूलिका है। माया- शल्य- यदि जीव बाह्य मे बगुले जैसा उज्ज्वल वेष धारण करके अतरग में दूषित भाव रखता है तो यह माया- शल्य कहलाती है। मारणान्तिक-‍ -समुद्घात-मरण के समय अपने वर्तमान शरीर को न छोडकर आगे जहा उत्पन्न होना है उस क्षेत्र तक आत्मा के प्रदेशो का फैलना मारणान्तिक-समुद्घात है । मारुत- चारण ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु अनेक प्रकार की गतिवाली वायु की प्रदेश पंक्ति पर पैर रखते हुए निर्वाध रूप से गमन करने में समर्थ होते है वह मारुत चारण ऋद्धि कहलाती है। मारुती - धारणा - आग्नेयी- धारणा के उपरात वह योगी आकाश मे पूर्ण होकर विचरण करते हुए महावेगवान वायुमडल का चिन्तवन करे । इस प्रवल वायुमडल ने अग्नि में जले शरीर आदि की भस्म को उडा दिया है और फिर वायु शात हो गई है - ऐसा चिन्तवन करे, यह मारुती - धारणा है । मार्गणा-मार्गणा का अर्थ खोजना या अन्वेषण करना है। जीव जिन भावो के द्वारा खोजे जाते है या जिन पर्यायो मे खोजे जाते हे उसे मार्गणा कहते है । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, सयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, सज्ञी ओर आहारक-ये चोदह मार्गणाए 196 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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