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अनपवायु-मरण कहलाता है। मरण के मुख्य पाच भेद और भी हे-पण्डित-पण्डित-मरण, पण्डित-मरण,वाल-पण्डित-मरण, वाल-मरण और वाल-वाल-मरण। मरण-भय-'मै जीवित रहू, कभी मेरा मरण न हो', इस प्रकार मरण के विषय में जो भय होता है वह मरण-भय है। मल-परीषह-जय-जीवन पर्यन्त स्नान न करने की प्रतिज्ञा करने वाले निर्गथ साधु के शरीर पर पसीना और धूलि के कारण स्वाभाविक रूप से जो मैल जमा हो जाता है उस संचित मैल से उत्पन्न होने वाली वाधा को समता-भाव से सहन करना मल-परीपह-जय हे। मल-दोष-शका काक्षा आदि दोषो से क्षयोपशम-सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता है यह सम्यग्दर्शन का मल-दाप कहलाता है। मलौषधि-ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु के जिहा, ओठ, नाक, आदि का मल जीवो के रोग दूर करने में समर्थ होता है वह मलोषधि-ऋद्धि है। मल्लिनाथ-उन्नीसवे तीर्थंकर । ये इक्ष्वाकुवशी राजा कुभ की रानी प्रजावती के पुत्र थे। इनकी आयु पचपन हजार वर्ष ओर शरीर पच्चीस धनुष ऊचा था। देह की कान्ति स्वर्ण के समान थी। अपने विवाह के लिए सजाए गये नगर को देखकर इन्हें अपने पूर्व भव का स्मरण हो गया ओर इन्होने विरक्त होकर जिनदीक्षा ले ली। छ दिन की तपस्या के उपरात इन्हे केवलज्ञान हुआ। इनके सघ मे अट्ठाईस गणधर, चालीस हजार मुनिराज, पचपन हजार आर्यिकाए, एक लाख श्रावक ओर तीन लाख श्राविकाए थीं । सम्मेदशिखर से इन्होने मोक्ष 192 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश