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मनोगुप्ति-राग-द्वेष-मोह आदि अशुभ-भावो का परिहार करना मनोगुप्ति है। मनोज्ञ-1 अभिरूप को मनोज्ञ कहते है। 2 लोक-सम्मत साधु को मनोज्ञ कहते है। 3 विद्वान्, वाग्मी, महाकुलीन आदिरूप से जो लोकप्रसिद्ध है उसे मनोज्ञ कहते है। 4 सस्कारवान् सम्यग्दृष्टि को मनोज्ञ कहते है। मनोवल-ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु अन्तर्मुहूर्त मे समस्त श्रुत का चिन्तन करने में समर्थ होता है उसे मनोबल-ऋद्धि कहते हैं। मन्त्र-1 जिसके द्वारा आत्मा का आदेश अर्थात् निजानुभव किया जाए वह मत्र है। 2 जिसके द्वारा परमपद मे स्थित आत्माओ का सत्कार किया जाए वह मत्र है। 3 जो गुप्त रूप से बोले जाते है उन्हे मत्र कहते है। मंत्रोत्पादन-दोष-दाता को मत्र की महिमा बताकर और मत्र देने की आशा दिलाकर यदि साधु आहार प्राप्त करे तो यह मत्रोत्पादन-दोष है। ममकार-आत्मा से भिन्न शरीर आदि मे मेरेपन का भाव या ममत्व भाव होना ममकार है। मरण-प्राणो का वियोग होना मरण कहलाता है। जीव का मरण अनेक प्रकार से होता है। जीव के आयु आदि प्राणो का जो निरतर क्षय होता रहता है वह नित्य-मरण या आवीचि-मरण है। विष आदि के निमित्त से अकाल मे होने वाले मरण को अपवायु-मरण या कदलीघात-मरण कहते है। पूर्ण आयु भोगकर होने वाला मरण
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 191