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के अवलम्वन से उत्पन्न होने वाले आत्मा के परिणाम को उपयोग कहते है। भाषा-समिति-हित, मित और प्रिय वचन बोलना भाषा-समिति है। यह साधु का एक मूलगुण है। भूमि-स्पर्श-यदि आहार के समय साधु के हाथ से भूमि का स्पर्श हो जाए तो यह भूमि-स्पर्श नाम का अन्तराय है। भेदविज्ञान-शरीर आदि 'पर' द्रव्यो से आत्मा भिन्न है-ऐसा अनुभव या ज्ञान होना भेद-विज्ञान है। भोग-जो वस्तु एक ही बार भोगने मे आती है उसे भोग कहते है। जैसे अन्न, पान, गध, माला आदि। भोग-भूमि-जहा कृषि आदि कार्य किये बिना दस प्रकार के कल्पवृक्षो से प्राप्त भोग-उपभोग की सामग्री के द्वारा मनुष्यो की उपजीविका चलती है उसे भोगभूमि कहते है। भोगभूमि मे नगर, कुल, वर्णाश्रम आदि की पद्धति नहीं होती। यहा युगल सतान उत्पन्न होती है जो पति-पत्नी के रूप मे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती है। यहां उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यंच सुखी, निरोगी और मृदु स्वभावी होते है और मरणोपरान्त स्वर्ग जाते हैं। भोगान्तराय-जिस कर्म के उदय से जीव भोगने की इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग पाता उसे भोगान्तराय कर्म कहते है। भोगोपभोग-परिमाण-प्रतिदिन भोजन, वस्त्र आदि भोग-उपभोग की सामग्री का परिमाण करके शेष का त्याग कर देना भोगोपभोग-परिमाण व्रत कहलाता है।
जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 187