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कोडा-कोडी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तक प्रत्येक स्थिति के भी कषाय आदि स्थान जानना चाहिए। इस प्रकार सभी मूल और उत्तर प्रकृतियो के परिवर्तन का क्रम जानना चाहिए। यह सब मिलकर एक भाव-परिवर्तन होता हे । आशय यह है कि इस जीव ने मिथ्यात्व के वशीभूत होकर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-वध के कारणभूत जितने प्रकार के परिणाम या भाव है उन सबका अनुभव करते हुए भाव-परिवर्तन रूप ससार मे अनेक बार भ्रमण किया है। भाव-पूजा-अर्हन्तादि के गुणो का चिन्तवन करना भाव-पूजा है। भावलिग-देखिए लिग। भाव-श्रुत-देखिए श्रुतज्ञान। भाव-सत्य-हिसा आदि दोष रहित अयोग्य वचन भी भाव-सत्य है। जेसे-किसी ने पूछा कि 'चोर देखा' तो देखने के उपरात भी कह देना कि 'नहीं देखा। भाव-सामायिक-सव जीवो के प्रति मेत्री-भाव रखना और अशुभ-भावो का त्याग करना भाव-सामायिक है। भाव-स्तव-जिनेन्द्र भगवान के गुणो का स्मरण करना भाव-स्तव है। भावानुराग-धर्मात्मा और धर्म का सम्मान/गौरव कम न हो ऐसी भावना होना भावानुराग कहलाता है। भावेन्द्रिय-जो लब्धि और उपयोग रूप है वह भावेन्द्रिय है। जिसके ससर्ग से आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना करने के लिए तत्पर होता हे ऐसे ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम को लब्धि कहते हैं तथा लब्धि 186 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश