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से होती हे-पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी ओर तत्त्वरूपवती। पिच्छिका-यह दिगम्वर मुनि की पहचान का वाह्य चिह्न है । इसे धारण करने से मुनिजन प्राचीन मुनियों के प्रतिनिधि स्वरूप है, ऐसा निश्चय हो जाता है । यह मयूर के द्वारा स्वत छोडे गये पखो से बनायी जाती है। यह धूल व पसीने से मेली नहीं होती, कोमल, मृदु और हल्की होती है । मुनिराज इसके द्वारा जीव दया का पालन करते है। इसलिए यह सयम का उपकरण भी है। पिपासा-परीषह-जय-जो साधु ग्रीष्म ऋतु के आतप या पित्त ज्वर आदि से उत्पन्न होने वाली तीव्र प्यास को समता भाव से सहन करते है ओर उसके प्रतिकार का उपाय नही करते, उनके यह पिपासा-परोषह-जय कहलाता है। पिहित-जो आहार अप्रासुक वस्तु से ढका है उसे निकालकर साधु को देना पिहित नाम का दोष है। पुण्डरीक-जिसमे भवनवासी आदि चार प्रकार के देवों में उत्पत्ति के कारणभूत दान, पूजा आदि अनुष्ठानों का वर्णन किया गया है वह पुण्डरीक नाम का अगवाह्य है। पुण्य-जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होती है उसे पुण्य कहते है। अथवा जीव के दया, दान, पूजा आदि रूप शुभ परिणाम को पुण्य कहते है। पुण्यानुवधी-पाप-पाप के उदय से मिले अपग या रुग्ण शरीर तथा मद बुद्धि आदि होने पर भी पुण्य-कार्य मे लगे रहना पुण्यानुवधी-पाप
जेनदर्शन पारिभाषिक कोश / 157