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________________ पाश्वनाय-तडसर्व तीर्थकर । उग्रवशी गजा विश्वमैन आर रानी ब्राह्मी (वामादेवी) के यहा इनका जन्म हुआ। इनकी आयु सी वर्ष थी। नो हाथ ऊचा इनका शरीर हरे रंग की आमा वाला था। सोलह वर्ष की अवस्था में वे अपन नाना महापाल के यहा गए । वहा पचाग्नितप करने क लिए लकडी जलाने वाल तापम को राका आर बताया कि इमम नागयुगल ह । तव क्रोधवश उसन लकडी काट दी। उसमें से निकले मरणासन्न नाग के जोडे को इन्हान धर्मोपदेश दिया जिससे वह मपयुगल मरकर धरणन्द्र आर पद्मावती नाम का देव-युगल हुआ। तीस वर्ष की कुमार अवस्था में इन्होंने विरक्त होकर जिनदीक्षा ले ली। तपस्या काल म कमठ के जीव शम्बर दव ने इन पर उपसर्ग किया। धरणन्द्र-पदावती ने आकर उपसग निवारण किया। उपसर्ग निवारण क साथ ही इन्ह केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इनके मघ मेस्ववभू आदि दस गणधर, सालह हजार मुनि, छत्तीस हजार आर्यिकाए, एक लाख श्रावक और तीन लाख धाविकाए थी। इन्होंने सम्मेदशिखर से निवाण पाप्त किया। पावस्य-जो सयम का निर्दोष पालन नहीं करते, सदा एक ही वसतिका में रहते है, दोषयुक्त आहार लेते हे, उपकरणों के द्वारा जीविका चलाते है, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की विनय नहीं करते ओर सयमी गुणवान साधुओ को दापी ठहराते हे ऐसे साधु पार्श्वस्थ कहलाते है। ये वदनीय नहीं है। पिण्डस्थ-ध्यान-निजात्मा का चिन्तवन करना पिडस्थ ध्यान है। पिडस्थ ध्यान करने वाला योगी अनेक प्रकार की धारणाओ के द्वारा मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करता है। इसमे पाव धारणाए क्रम 156 / जनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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