________________
निसही - प्रवेश की सूचना के लिए प्रयुक्त शब्द । साधु को जव जिनमंदिर मठ या गुफा आदि मे प्रवेश करना हो तो वहा रहने वाले भूत, यक्ष, नाग आदि से 'निसही' इस शब्द को बोलकर प्रवेश करना चाहिए। इसी तरह वहा से निकलना हो तो 'असही' इस शब्द को बोलकर निकलना चाहिए ।
नि काक्षित-इन्द्रिय सुखो की आकाक्षा छोडकर सम्यग्दृष्टि जीव मोक्ष की प्राप्ति के लिए तप आदि अनुष्ठान करता है यह उसका नि कांक्षित गुण है।
निशकित - अर्हन्त भगवान वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं इसलिए उनके द्वारा कहे गए मोक्ष और मोक्षमार्ग के स्वरूप मे सम्यग्दृष्टि जीव सशय नहीं करता यह उसका नि शंकित गुण है।
नि सरणात्मक - तैजस-जीवो के अनुग्रह या विनाश करने मे समर्थ जो तैजस-शरीर साधु के स्थूल शरीर से बाहर निकलता है उसे निसरणात्मक तैजस शरीर कहते है । यह दो प्रकार का है प्रशस्त - निसरणात्मक-तैजस और अप्रशस्त - नि सरणात्मक - तैजस ।
निःसृत-वस्तु के पूर्णत प्रगट होने पर ही उसका ज्ञान होना नि सृत- अवग्रह है । जैसे जलमग्न हाथी के पूर्णत बाहर आने पर ही उसका ज्ञान हो पाना ।
नीच - गोत्र - जिस कर्म के उदय से जीव का जन्म लोकनिन्दित अर्थात् हिसक, दुराचारी, दुख से पीडित, दरिद्र कुल मे हो उसे नीच - गोत्र कहते हैं ।
144 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश