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________________ निर्वाण का अर्थ विनाश है, अत सर्व कर्मों का विनाश होना ही निर्वाण है । या जहा पीडा, बाधा, जन्म, मरण आदि नहीं है वही निर्वाण है । निर्वाण - कल्याणक - तीर्थकरो के निर्वाण के अवसर पर होने वाला उत्सव निर्वाण-कल्याणक कहलाता है। आयु पूर्ण होने के अंतिम समय मे भगवान योग-निरोध करके ध्यान के द्वारा शेष सर्व कर्मों का क्षय कर देते हैं और आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था मे स्थित हो जाते हैं । देवगण भगवान के निर्वाण-कल्याणक की पूजा करते है | भगवान का शरीर कपूर की भांति उड जाता है । इन्द्र उस स्थान पर भगवान् के लक्षणो से युक्त सिद्धशिला का निर्माण करता है । निर्विकृति - जिह्वा एव मन मे विकार उत्पन्न करने वाले गोरस आदि को विकृति कहा जाता है अथवा जिस आहार को परस्पर मिलाने से विशेष स्वाद उत्पन्न होता है उसे विकृति कहते है । विकृति से रहित छाछ आदि को निर्विकृति कहते है । निर्विचिकित्सा - जो रत्नत्रय से पवित्र है ऐसे मुनिजनी के मलिन शरीर को देखकर घृणा नहीं करना और उनके गुणो के प्रति प्रीति रखना यह सम्यग्दर्शन का निर्विचिकित्सा अङ्ग है | निर्वृत्तिअपर्याप्त-पर्याप्ति नामकर्म के उदय से युक्त जीव के जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती उतने काल तक उसे निर्वृत्ति-अपर्याप्त कहते हैं । निर्वेजनी - कथा - ससार, शरीर और भोगो से वैराग्य उत्पन्न कराने वाली कथा को निर्वेजनी कथा कहते है । जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 141
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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