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की रचना होती है उसे निर्माण-नामकर्म कहते हे। चक्षु आदि अवयवी के स्थान ओर प्रमाण आदि का निर्धारण भी निर्माण नामकर्म के उदय से हाता है।
निर्माल्य-मत्रांच्चार या अभिप्रायपूर्वक सच्चे देव शास्त्र गुरु के सम्मुख चढाई गई वस्तु निर्माल्य कहलाती है। निर्माल्य दो प्रकार का होता हे - देव द्रव्य ओर देव धन । जो नैवेद्य, जल, चदन आदि द्रव्य भगवान के सम्मुख अर्पित की जाती हे वह देव-द्रव्य रूप निर्माल्य है। यदि चढाने वाला इस सामग्री को स्वय प्रसाद रूप मे ग्रहण करे या अन्य किसी को प्रसाद को तरह दे तो उसके अन्तराय कर्म का बध होता है। मंदिर के जीर्णोद्धार, जिनविव-प्रतिष्ठा, वेदी - प्रतिष्ठा, जिन-पूजन और रथोत्सव आदि धर्म कार्य के लिए जो दान राशि प्रदान की जाती हे वह देवधन रूप निर्माल्य है । जो लोभवश निर्माल्य ग्रहण करता है वह नरकगामी होता है।
निर्यापक - सल्लेखना धारण कराने वाले आचार्य को निर्यापक या निर्यापकाचार्य कहते है । योग्य-अयोग्य आहार को जानने वाले, प्रायश्चित - ग्रथ के रहस्य को जानने वाले, आगम के ज्ञाता और स्व-पर के उपकार में तत्पर आचार्य ही निर्यापक होने के योग्य हैं। एक क्षपक की सल्लेखना के लिए अधिकतम अडतालीस निर्यापक होते है और कम से कम दो निर्यापक भी सल्लेखना के कार्य को सभाल सकते है । जिनागम में एक निर्यापक का किसी भी काल मे उल्लेख नहीं है । यदि एक ही निर्यापक होगा तो सल्लेखना का महान कार्य निर्विघ्न सपन्न नहीं हो सकता ।
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निर्वाण - आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था का नाम निर्वाण है अथवा
140 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश
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