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द्वितीयोपशम-सम्यक्त्व-उपशम श्रेणी चढने वाले साधु को क्षयोपशम सम्यग्दर्शन से पुन जो उपशम-सम्यक्त्व प्राप्त होता हे उसे द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन कहते है। यह सम्यग्दर्शन अनन्तानुवधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारो कषायो की विसयोजना और मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन तीन कर्म प्रकृतियो के उपशम से होता है। द्विदल-मूग, चना, उडद आदि जिस धान्य के दो दल अर्थात् दो भाग हो जाते है उसे दही या छाछ के साथ मिलाने पर वह द्विदल कहलाता है। इसे अभक्ष्य माना है। द्वीन्द्रिय-जीव-जिनके स्पर्शन व रसना-ये दो इन्द्रिया होती हैं वे द्वीन्द्रिय-जीव कहलाते है। जैसे-इल्ली, कृमि आदि। द्वीप-सागर-प्रज्ञप्ति-जिसमे द्वीप ओर समुद्रो का प्रमाण तथा द्वीप व समुद्र के अन्तर्भूत अन्य वस्तुओ का भी वर्णन किया गया है वह द्वीप-सागर- प्रज्ञप्ति है। द्वेष-अप्रीति या वेरभाव होना द्वेष है। क्रोध, मान, अरति, शोक, जुगुप्सा, भय ये सभी द्वेष के ही विविध रूप है।
128 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश