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पर्प-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही धर्म है। या जो लीग को ममार के दुखों से बचाकर मोक्ष सुख में पहुचावे, वह धर्म
अथवा वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। धर्म दो प्रकार का हे-व्यवहार गर्भ और निश्चय धर्म । टान, पूजा, शील, जप, तप, त्याग आदि
वार धर्म तथा परिणामों को निर्मलता, समता या वीतरागता निमय-धर्म है। धर्मचक्र-तीर्घकर के समवसरण मे स्थित पीठिका पर जो सूर्य के विव क. ममान दैदीप्यमान चक्र शोभित होते हे वे धर्मचक्र कहलाते हे। पं गमगरण में चागे दिशाओं में होने है। हजार आरो वाले ये धर्मचक्र दवा र रक्षित होते है। पर्म-द्रव्य-जो जीव व पुदगल के गमन मे महायक है उसे धर्म-द्रव्य कहते है। यादय समृच लोक मे व्याप्त है। यह अचेतन और अरूपी हे। इसका कार्य जन की तरह है जो माउली को गमन करने में सहायक