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________________ द्रव्यानुयोग-जिसमे मुख्य रूप से जीव-अजीवतत्त्व का, पुण्य-पाप और वन्ध-मोक्ष का विवेचन किया गया है वह द्रव्यानुयोग है। इस अनुयोग की कथन पद्धति का प्रयोजन यह है कि जो जीव, तत्त्व के वास्तविक स्वरूप से अपरिचित होने के कारण आपा-पर के भेद विज्ञान से वंचित है वे तत्त्व को पहचाने और उसका अभ्यास करे, जिससे मोक्षमार्ग मे रुचि बढे। द्रव्यार्थिक-नय-जो पर्याय को गौण करके द्रव्य को मुख्य रूप से अनुभव करावे वह द्रव्यार्थिक नय है। यह वस्तु को जानने का एक दृष्टिकोण है जिसमे वस्तु के विशेष रूपो से युक्त सामान्य रूप को दृष्टिगत किया जाता है। जैसे-मनुष्य, देव, तिर्यच आदि विविध रूपो मे रहने वाले एक जीव सामान्य को देखना या कहना कि यह सब जीव द्रव्य है। द्रव्येन्द्रिय-जो निवृत्ति और उपकरण रूप है तथा वाहर दिखाई पडती हे उसे द्रव्येन्द्रिय कहते है। इसमे जो इन्द्रिय के निश्चित आकार आदि को रचना हे वह निर्वृत्ति कहलाती हे और जो निर्वृत्ति के लिए सहायक हे वह उपकरण हे। जेसे-चक्षु इन्द्रिय का जो निश्चित आकार है वह निर्वृत्ति है तथा जो सफेद और काला गोलक व पलके है वह उपकरण हे। द्वादशाङ्ग-श्रुत के बारह अङ्ग आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथाङ्ग, उपासकाध्ययनाङ्ग, अन्तकृद्दशाङ्ग, अनुत्तरोपपादिक दशाङ्ग, प्रश्नव्याकरणाङ्ग, विपाकसूत्राङ्ग ओर दृष्टिप्रवादाङ्ग ही द्वादशाङ्ग हे। द्रव्यश्रुत रूप द्वादशाङ्ग की रचना गणधर करते है। इसे ही जिनवाणी कहते है। जैनदर्शन पारिभाषिक कोश/ 127
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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