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________________ प्रलय के समय विजयाध की गुफाओं में जी बहत्तर कुलो मे उत्पन्न दीन-हीन स्त्री-पुरुष तथा कुछ तिर्यच जीव शेष बच जाते है उनकी ऊचाई मात्र एक हाथ और आयु पद्रह-सोलह वर्ष होती है। उत्सर्पिणी के इस प्रथम काल के प्रारम्भ मे जल, दूध, अमृत, रस आदि सात प्रकार के सुखदायी मेघो की वृष्टि सात-सात दिन तक होने से उनचास दिन मे सारी पृथिवी शीतल और लता गुल्म आदि से समृद्ध हो जाती है। शीतल सुगध का अनुभव होने से मनुष्य और तिर्यच गुफाओ से बाहर निकल आते है और वृक्षो के मूल, फल, पत्ते आदि खाकर जीवन-यापन करने लगते है। आयु, वल, तेज आदि उत्तरोत्तर बढते जाते है। इस काल का प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष है। दुःषमा-सुषमा-अवसर्पिणी के चतुर्थकाल और उत्सर्पिणी के तृतीय काल का नाम दुषमा-सुषमा है। अवसर्पिणी के इस चतुर्थकाल मे मनुष्य असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प-इन षट् कर्मो के द्वारा अपनी आवश्यकताओ की पूर्ति करते है। मनुष्यो की अधिकतम आयु एक पूर्व कोटि और ऊचाई पाच सौ धनुष प्रमाण होती है। इस काल मे धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाले तीर्थकर और अन्य महापुरुष जन्म लेते है। उत्सर्पिणी के इस तृतीय काल के प्रारभ में मनुष्यों की आयु एक सो बीस वर्ष और ऊचाई सात हाथ होती है। मनुष्य मर्यादा, विनय, लज्जा आदि श्रेष्ठ गुणो से सपन्न होते है। इस काल मे शेष सभी वाते अवसर्पिणी के चतुर्थकाल के समान होती है। विशेषता यह है कि मनुष्यो की आयु, वल, तेज आदि उत्तरोत्तर बढते जाते है। दु स्वर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से गधा, ऊट आदि के समान जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 121
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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