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दर्शनविनय - शकादि दोषो से रहित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना ओर सच्चे देव शास्त्र गुरु की पूजा भक्ति आदि में तत्पर रहना दर्शन- विनय हे ।
दर्शन - विशुद्धि - सम्यग्दर्शन का अत्यत निर्मल व दृढ होना दर्शन-विशुद्धि कहलाती है । सोलह-कारण- भावना मे यह प्रथम भावना है। इसके होने पर ही तीर्थकर प्रकृति का वध सभव होता है ।
दर्शनाचार-नि शंकित आदि आठ अङ्ग युक्त सम्यग्दर्शन का पालन करना अर्थात् उस रूप आचरण करना दर्शनाचार कहलाता है ।
दर्शनावरणीय कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव का दर्शन गुण आवरित हो जाता है उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते है । यह नौ प्रकार का हे - चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला - प्रचला और स्त्यानगृद्धि ।
दशवैकालिक - जिसमें साधुओ की आचार - विधि और गोचर - विधि अर्थात् आहार चर्या की विधि का वर्णन हो उसे दशवेकालिक कहते है ।
दशमशक - परीषह-जय-मच्छर, मक्खी, चींटी आदि के द्वारा पीडा पहुचाये जाने पर जो साधु उसे समता पूर्वक सहन कर लेता है उसके यह दशमशक- परीषह -जय है ।
दान - परोपकार की भावना से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान कहलाता है। दान चार प्रकार का हे - आहार-दान, ओषधि-दान, उपकरण या ज्ञान-दान और अभयदान । दान के चार भेद ओर भी 116 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश