________________
कहलाता है। तीर्थ का अर्थ धर्म भी है। धर्म की प्राप्ति मे सहायक श्री महावीर जी, श्री अतरिक्ष पार्श्वनाथ जी, श्री गोमटेश वाहुवली आदि अतिशय क्षेत्र और श्री सम्मेदशिखर जी, श्री पावापुरजी आदि निर्वाण क्षेत्र भी तीर्थ कहलाते है। तीर्थयात्रा-अकार्य से निवृत्त होना यही तीर्थयात्रा है। तृणस्पर्श-परीषह-जय-जो साधु चलते, वैठते या शयन करते समय सूखे तिनके, ककर, पत्थर, काटे आदि चुभने पर उत्पन्न होने वाली पीडा को समतापूर्वक सहन करते हे और जीव-रक्षा मे तत्पर रहते हैं उनके यह तृण-स्पर्श-परीपह-जय है। तेजोलेश्या-जो कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य को जानता हो, सबमे समभाव रखता हो, दया ओर दान में तत्पर हो, मृदुभाषी ओर ज्ञानी हो-ये सव तजो-लेश्या या पीत-लेश्या के लक्षण है। तैजस-शरीर-स्थूल शरीर मे दीप्ति या तेज मे कारणभूत जो सूक्ष्म शरीर होता है उसे तेजस-शरीर कहते है। यह दो प्रकार का है-नि सरणात्मक तेजस और अनि सरणात्सक तेजस। तैजस-समुद्घात-जीवो के अनुग्रह ओर विनाश मे समर्थ तेजस-शरीर का बाहर फेलना तेजस-समद्घात कहलाता है। यह नि सरणात्मक तेजस-शरीर हे जो दो प्रकार का हे-शुभ-तेजस ओर अशुभ तेजस ।
त्यस्त-दोप-दाता के द्वारा दिए गए आहार में से यदि साधु वहुत 'सा आहार नीचे गिराते हुए आहार ग्रहण करे या अधिक मात्रा में मध आदि अजलि में में अरता हो तो यह त्वक्त नाम का दोप है।
जेनदर्शन पारिभाषिक कोश : 15