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दश-वैकालिक-सूत्र ।
अथ पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश ।
स्थितत्रस-स्थावरादि प्राणिगण प्रति । साधुरा करिवे हिंसा अति रुष्टमति ॥५ संयत सुसमादित साधक सजन । ना करिवे उक्त पथे कदापि गमन ।। ना पाइले भिन्न पथ उपायविहीन । यावे सन्तपणे पथे साधक प्रवीण ॥६ धूलिमय पादय हले साधुगण । कि कि द्रव्य त्यजि सदा करेन गमन ।। बलिव उहार कथा अति विस्तारित । पालिया चलिवे साधु व्रते समाहित ।। अङ्गारक क्षारराशि किम्बा तुषचय । गोमये राखिले पद धूलि-राशिमय ।। धूलिमध्ये रहियाछे यत जीवगण । अवश्य मरिवे स्पर्श बुझि तपोधन ।। धूलियुक्त पद द्वारा साधु अहर्निश । करिवेना अतिक्रम पूर्वोक्त जिनिष ॥७ वर्षार वर्पण हेरि विज्ञ साधुजन। नेहारि धराय कभु तुषार पतन ॥ धूमाछन्न चारिदिक् अन्धकारे घेरा। महावाते कोपे जीव हये दिशाहारा । असंख्य पतङ्ग पात, साधु निरखिया। कोथा ना याइवे शुध भिक्षार लागिया ॥८