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दश - वैकालिक - सूत्र प्रथम अध्ययन । देहेते आश्रित धर्म्म देह खाद्यपर । किरूप आहार्य्यरत साधक प्रवर ॥ वक्ष्यमाण उपमार मम्मर्थ बुझिवे । साधक, भोजनविधि वुझिया चलिवे, ॥ मंधुर कुसुम रस बहुविटपीर । भ्रमर येमति पिवे क्षुधार्त्त सुधीर ॥ पीड़न करेणा कभु पुष्पमध्यभाग । आत्मार तर्पणहेतु शुधु अनुराग ॥२ वाह्य धन कनकादि मिथ्यात्वादि रूप । आभ्यन्तर-ग्रन्थ- शून्य शान्तिर स्वरूप । श्रमण तपस्यारत घाइलोकवासी । अति शुद्ध आहार्येर हन : अभिलाषी ।। पुष्पोपरि बसि : करे मधु अण्वेषण । सदोष मुक्त हये भ्रमर येमन ! गृहस्थेर दत्तखाद्य तथा दोषहीन । खुजिते तत्परः हून सांधक प्रवीण 11३ पूर्वोक्त आहाय्यकथा शुनि शिष्य भाषे । करिव ना कारो नाश जीविकार आशे । पुष्पेर उपरे थाकि मधु करि पान
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द्विरेफ करेणा पुष्प कखनउ म्लान ! 'सेइरूप साधुगण प्रतिज्ञा करिया । · भिक्षा याचे दोषशून्य गृहेते याइया ||४ मूलतत्व कथा साधु इन अवगतः। : सर्वेन्द्रिय वशवर्ती राखेन संततः ||
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