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(थोकड़ा नं०६४) - श्री भगवतीजी सूत्र के सातवें शतक के सातवें उद्दशे में 'काम भोगादि' का थोकड़ा चलता है सो कहते हैं---
१-अहो भगवान् ! उपयोग सहित गमनागमनादि क्रिया करते हुए संवुडा ( संवर युक्त ) अणगार को इरियावही ( ऐपिथिकी ) क्रिया लगती है या सांपरायिकी क्रिया लगती है ? हे गौतम ! अकपायी संवुडा अणगार सूत्र प्रमाणे चलता है, इसलिए उसे इरियावही क्रिया लगती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं लगती । कषायसहित, उत्सूत्र चलने वाले अणगार को सांपरायिकी क्रिया लगती है। . . ... २-अहो भगवान् ! काम कितने प्रकार के हैं ? हे गौतम ! काम दो प्रकार के हैं-शब्द और रूप । अहो भगभगवान् ! काम रूपी है या अरूपी ? सचित्त है या अचित्त ? जीव है या अजीव ? हे गौतम ! काम रूपी है, अरूपी नहीं। काम सचित्त भी है और अचित्त भी है, काम जीव भी है और अजीव भी है । अहो भगवान् ! काम जीवों के होते हैं या अजीवों के होते हैं ? हे गौतम ! काम जीवों के होते हैं, अजीवों के नहीं होते।
३-अहो भगवान् ! भोग कितने प्रकार के हैं ? है। गौतम ! भोग तीन प्रकार के हैं.-गंध, रस, स्पर्श । अहो. भगवान् ! भोग रूपी हैं या अरूषी ? सचित्त हैं या अचित्त ? :
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