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( थोकड़ा नं० ५८ ) श्री भगवतीजी सूत्र के सातवें शतक के पहले उद्देशे में 'आहार' का थोकड़ा चलता है सो कहते हैं
१ - श्रहो भगवान् ! जीव मर कर परभव में जाता हुआ कितने समय तक अनाहारक रहता है ? हे गौतम! परभव में जाता हुआ जीव पहले, दूसरे, तीसरे समय में सिय (कदाचित् ) श्राहारक, सिय अनाहारक होता है। चौथे समय में नियमा ( अवश्य ) आहारक होता है । समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय में पहले, दूसरे तीसरे समय तक आहार की भजना है, चौथे समय में आहार की नियमा है । त्रस के १६ दण्डक के जीवों में पहले दूसरे समय आहार की भजना है तीसरे समय आहार की नियमा है ।
२ -- अहो भगवान् ! जीव किस समय अल्प श्राहारी होता ? हे गौतम ! उत्पन्न होते वक्त प्रथम समय में और मरते वक्त चरम ( अन्तिम ) समय में जीव अल्प - आहारी होता है ।
३ - श्रहो भगवान् ! लोक का कैसा संठाण ( संस्थान ) है ? हे गौतम! लोक का संठाण सुप्रतिष्ठ ( सरावला ) के आकार है। नीचे चौड़ा, बीच में संकड़ा और ऊपर पतला है । ऐसे शाश्वत लोक में केवलज्ञान केवल दर्शन के धारक अरिहन्त जिन केवली जीवों को जीवों को सब को जानते देखते हैं । . वे सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं ।