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७० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
सन् १९१५ ई०. मान लिया है । १७३ पृष्ठों की इस पुस्तक का आकार १७ सें० है ।
११. मेघदूत : महाकवि कालिदास के ख्यात संस्कृत - खण्काव्य 'मेघदूत' का हिन्दी गद्य में किया गया भावार्थबोधक अनुवाद इण्डियन प्रेस ( इलाहाबाद ) द्वारा सन् १९१७ ई० में प्रकाशित हुआ था । ४७ पृष्ठों के इस अनुवाद का आकार १८ सें ० है ।
१२. किरातार्जुनीय : महाकवि भारवि रचित संस्कृत के ख्यात महाकाव्य 'किरातार्जुनीय' का भावार्थबोधक अनुवाद द्विवेदीजी ने किया था । इण्डियन प्रेस (इलाहाबाद) द्वारा सन् १९१७ ई० में उक्त अनुवाद का प्रकाशन कुल ३८० पृष्ठों की प्रस्तुत पुस्तक के रूप में १८ से० आकार में हुआ ।
संस्कृत, अँगरेजी और बँगला की इन्हीं १२ पुस्तकों की गणना आचार्य द्विवेदीजी के अनूदित गद्य साहित्य के रूप में होती है । इन कृतियों से अनुवादक की भाषाशैली का निदर्शन होने के साथ-ही-साथ उसकी परिष्कृत रुचि का भी परिचय मिलता है । द्विवेदीजी द्वारा किये गये ये अनुवाद मनोरंजक भी हैं और ज्ञानप्रद भी । आचार्य द्विवेदीजी को अन्य लोगों द्वारा सम्पादित कृतियाँ :
द्विवेदीजी की कतिपय रचनाएँ उनकी मृत्यु के बाद अप्रकाशित रह गईं। उन्ही में से कुछ को विभिन्न सज्जनों ने सम्पादित कर प्रकाशित किया है । इस प्रसंग मे अधोलिखित दो पुस्तकों की चर्चा अपेक्षित है :
१. संचयन : श्रीप्रभात शास्त्री द्वारा सम्पादित १४५ पृष्ठों की इस पुस्तक में विभिन्न विषयों पर साहित्य - सम्बन्धी द्विवेदीजी के लेखों का संकलन हुआ है । इलाहाबाद के साहित्यकार संघ द्वारा सन् १९४९ ई० में प्रकाशित इस पुस्तक का आकार १८ से ं ० है |
२. द्विवेदी - पत्रावली : आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीजी के विविध पत्नों का यह संकलन बैजनाथ सिंह विनोद ने सम्पादित किया है। इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ (वाराणसी) द्वारा सन् १९५४ ई० में हुआ है । इस पुस्तक की भूमिका श्रीमैथिलीशरण गुप्त ने लिखी है । २२६ पृष्ठों के इस ग्रन्थ का आकार १८ सें० है । इन दोनों पुस्तकों का भी आचार्य द्विवेदीजी के कृतित्व में अपना विशेष महत्त्व है । विशेष रूप से इनके पत्तों का तो ऐतिहासिक महत्त्व है । अब भी नागरी प्रचारिणी सभा (वाराणसी) में द्विवेदीजी के १८०१ पत्र प्रकाशन की प्रतीक्षा में सुरक्षित पड़े हुए हैं।
द्विवेदीजो को अप्रकाशित कृतियां :
'सरस्वती' सम्पादक होने के नाते आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की लगभग सारी रचनाएँ पुस्तकाकार धारण कर चुकी हैं, फिर भी उनकी तीन पुस्तकें