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४६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
का मुस्तहक कैसे हो गया ? विचार करने पर मेरी समझ में इसका एकमात्र कारण मुझपर कृपा करनेवाले सज्जनो का अनुग्रह ही जान पड़ता है ।" "
हिन्दी के साहित्येतिहास में युग-निर्माण की क्षमता रखनेवाले आचार्य की इन पंक्तियों से उनकी विनम्रता ही झलकती है । अपनी शालीनता के कारण मान एवं सम्मान की उन्होने परवाह नहीं की । हिन्दी-साहित्य सम्मेलन ने उन्हें कई बार अधिवेशनों की अध्यक्षता करने के लिए आमन्त्रित किया, परन्तु अपनी सहज विनयशीलता के कारण अपने-आपको उक्त पद के लिए अयोग्य मानकर द्विवेदीजी ने सदैव अस्वस्थता आदि का बहाना बनाकर सम्मेलन के आमन्त्रण को टाला। सम्मेलन की ओर से द्विवेदीजी के अभिनन्दनार्थ प्रयाग में 'द्विवेदी - मेला' आयोजित करने का विचार किया गया, तब भी आचार्य महोदय ने इस मेले का विरोध किया था । लेकिन, मेला आयोजित हुआ । और, दिनांक ४-५-६ मई, १९३३ ई० को पं० मदनमोहन मालवीय के द्वारा उद्घाटित मेला डॉ० गंगानाथ झा की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ । भरी सभा में डॉ० झा ने द्विवेदीजी को अपना गुरु स्वीकार किया और उनका चरणस्पर्श करने झुक पड़े । द्विवेदीजी संकोचवश तेजी से कुर्सी छोड़कर उठ गये । उस समय द्विवेदीजी ने कहा था : 'भाइयो, जिस समय डॉ० गंगानाथ झा मेरी ओर बढ़े, मैंने सोचा, यदि पृथ्वी फट जाती और मैं उसमें समा जाता, तो अच्छा होता । २ अपने भाषण में द्विवेदीजी ने 'द्विवेदी - मेला' के आयोजन का कारण अपने इन विनम्र शब्दों में अभिव्यक्त किया :
"आपने कहा होगा - बूढा है, कुलद्रुम है, आधि-व्याधियों से व्यथित है, निःसहाय है, सुत, दार और बन्धु बान्धवों से रहित होने के कारण निराश्रय है । लाओ, इसे अपना आश्रित बना लें । अपने प्रेम, अपनी दया और अपनी सहानुभूति के सूचक इस मेले के साथ मेरे नाम का योग करके इसे कुछ सान्त्वना देने का प्रयत्न करें, जिससे इसे मालूम होने लगे कि मेरी भी हितचन्तना करनेवाले और शान्तिदान का सन्देश सुनानेवाले सज्जन मौजूद हैं। "3 द्विवेदीजी अपनी शालीनता और ऋजुता के लिए चाहे जो भी कहें, परन्तु उक्त द्विवेदी - मेला हिन्दी-संसार की, आचार्यप्रवर की सेवा में अर्पित एक पुष्पांजलि - मात्र था । द्विवेदीजी का तो स्वभाव ही मान-सम्मान से अनासक्त रहने का था । अपने विनय के कारण वे जीवन-भर लक्ष्मी के वरदान से वंचित रहे ।
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'मेरी जीवन रेखा', 'भाषा' : द्विवेदी- स्मृतिअंक, पू० ११ ।
२. 'सरस्वती', भाग ४०, संख्या २, पृ० १६४ ।
३. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'मेले के अवसर पर दिया भाषण, पृ० ६ ।