________________
जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्व [ ४५ एक बार उन्होंने हिन्दी के ख्यातिप्राप्त कवि एवं तत्कालीन 'प्रताप' के सम्पादक श्रीबालकृष्ण शर्मा नवीन की शृगार-रस से ओतप्रोत कविताओं पर विनोदपूर्ण कटाक्ष किया था। उन्होंने नवीनजी से हँसी-हँसी में पूछ डाला : 'काहे हो बालकृष्ण, ई तुम्हार सजनी-सखी-सलानी-प्राण को आय ? तुम्हार कविता मां इनका बड़ा जिकर रहत ह ?' नवीनजो यह उक्ति सुनकर झेंप गये थे। व्यवहार की ही भांति लेखन में भी उन्होंने हास्य-व्यंग्य को यथावसर अपनाया है। उनकी ६८वीं वर्षगांठ के अवसर पर कुछ लोगों ने ६७ वीं वर्षगाँठ को ही मनाया । इसपर द्विवेदीजी ने लिखा :
"किसी-किसी ने ९वी मई, १९३२ ई० को सरसठवी ही वर्षगाँठ मनाई है। जान पड़ता है कि इन सज्जनों के हृदय मे मेरे विषय के वात्सल्यभाव की मात्रा कुछ अधिक है । इसी से उन्होंने मेरी उम्र एक वर्ष कम बता दी है। कौन माता-पिता या गुरुजन ऐसा होगा, जो अपने स्नेहभाजन की उम्र कम बतलाकर उसकी जीवनावधि को और भी आगे बढा देने की चेष्टा न करेगा ?" १
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की ऐसी विनोदपूर्ण उक्ति को पढकर किसके होठों पर हँसी की रेखा नहीं फूट पड़ेगी। अतः, स्पष्ट है कि उनके व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष उनकी विनोदशीलता भी थी। (च) विनम्रता और शालीनता :
द्विवेदीजी को कई महानुभावों ने रूक्ष और कठोर प्रकृति का बतलाया है । परन्तु, उनके परिचितों-शिष्यों आदि को यह सर्वदा अनुभव रहा है कि कभी-कभी उनका विनय-प्रदर्शन अपनी सीमा को भी पार कर जाता था। वस्तुतः, द्विवेदीजी बड़े ही शालीन और विनयशील पुरुष थे। अपने ख्यात आत्मचरित में उनकी यह विनम्रता लेखनी के माध्यम से भी फूट निकली है :
"मुझे आचार्य की पदवी मिली है। क्यों मिली है, मालूम नहीं । कब, किसने दी है, यह भी मुझे मालूम नहीं। मालूम सिर्फ इतना ही है कि बहुधा इस पदवी से विभूषित किया जाता हूँ। यह लक्षण तो मुझपर घटित होता है नहीं; क्योंकि मैंने कभी किसी को इक्का एक भी नही पढ़ाया। शंकराचार्य, मध्वाचार्य, सांख्याचार्य आदि के सदृश किसी आचार्य के चरण-रजकण की बराबरी मैं नहीं कर सकता। बनारस के संस्कृतकालिज या किसी विश्वविद्यालय में भी मैंने कभी कदम नहीं रखा। फिर, इस पदवी
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : कृतज्ञता-ज्ञापन, 'भारत', द्वि० २२-५-३२ ई० ।