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जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्व [ ३९ 'दायमुलहन्स' से हुआ। छूटने पर मैंने उन्हें एकान्तवास की आज्ञा दे दी है; क्योंकि सती की आज्ञा का उल्लंघन करने की शक्ति मुझमें नहीं। इस तरह मेरी पत्नी ने तो मुझे साहित्य के उस पंक-पयोधि में डूबने से बचा लिया।"१
इस प्रकार, जिस आत्मीयता के साथ द्विवेदीजी की पत्नी ने अर्धागिणी और सहधर्मिणी होने का दायित्व पूरा किया, उतनी ही सचाई और तन्मयता के साथ द्विवेदीजी ने भी उनके प्रति अपना अटूट स्नेह व्यक्त किया। एक बार द्विवेदीजी की स्त्री की एक सखी ने उनके द्वार पर पड़ी पूर्वजों द्वारा स्थापित महावीरजी की मूर्ति को दिखाकर कहा कि इसके लिए चबूतरा बन जाता, तो अच्छा होता। चबूतरा बनवाकर उनकी पत्नी ने 'महावीर' शब्द की श्लिष्टता का उपयोग करते हुए द्विवेदीजी से कहा कि मैंने तुम्हारा चबूतरा बनवा दिया है। इसपर द्विवेदीजी ने तत्काल उत्तर दिया कि तुमने मेरा चबूतरा बनवा दिया है, अब मैं तुम्हारा मन्दिर बनवाऊँगा। उस समय हंसी-मजाक के बीच निकली हुई इस बात को द्विवेदीजी ने पत्नी के देहावसान के बाद सत्य में परिवर्तित किया। उनकी पत्नी को आरम्भ से ही हिस्टीरिया का रोग था। इसी कारण द्विवेदीजी उन्हें अकेली गंगास्नान करने नहीं जाने देते थे। एक बार दे गाँव की कुछ अन्य औरतों के साथ गंगास्नान करने चली गई। दुर्भाग्यवश गंगास्नान करते समय ही वे जलमग्न हो गई। दूसरे दिन उनका शव पानी में लगभग एक कोस पर मिला। अपनी धर्मपत्नी के निधन से दुःखी द्विवेदीजी ने लोगों के लाख समझाने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। अपितु, उन्होने गाँव में अपने पत्नी-प्रेम के स्मारक-स्वरूप एक मन्दिर का निर्माण प्रारम्भ कराया। इस स्मारक-मन्दिर में उन्होंने जयपुर से लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्तियाँ मँगवाकर स्थापित करवाई तथा इन दोनो के बीच उन्होने एक शिल्पी द्वारा लगभग सात-आठ मास मे एक हजार रुपया खर्च कर बनवाई गई अपनी पत्नी की मूर्ति स्थापित की। अपनी प्रिजनना स्त्री की मूर्ति के नीचे द्विवेदीजी ने स्वरचित निम्नांकित श्लोक अंकिता करवा दिये है :
"नवषण्णवभूसंख्ये विक्रमादित्यवत्सरे । शुक्र कृष्णनयोदश्यामधिकाषाढमासि च ॥ मोहमुग्धा गतज्ञाना भ्रमरोगनिपीडिता। जह नुजाया जले प्राप पञ्चत्वं या पतिव्रता ॥
. १. आचार्य म०प्र० द्वि० : 'मेरी जीवन-रेखा', 'भाषा' : द्विवेदी-स्मृति-अंक,
पृ० १५।