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३८ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
कोमलता,विनोदशीलता, कर्तव्यपरायणता, व्यवहारकुशलता, व्यवस्थाप्रियता, समयज्ञता, प्रतिभा की परख, संग्रहवृत्ति, अतिथि-सेवा, भावुकता, दानवीरता एवं ब्राह्मणत्व का गौरव आदि जिन प्रमुख स्वभावगत एवं चारित्रिक विशेषताओं का वे वहन करते थे, उनमें से प्रत्येक का उनके व्यक्तित्व-निर्माण एवं साहित्यिक उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में अपना विशिष्ट स्थान है । अतएव, द्विवेदीजी के उक्त विशिष्ट चारित्रिक पहलुओं का अध्ययन उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्पूर्ण अनुशीलन के सन्दर्भ में आवश्यक ही नही, अनिवार्य भी है। (क) पत्नी के प्रति प्रेम : ___अपने पारिवारिक जीवन में द्विवेदीजी बड़े ही दुःखी रहे । माता-पिता के कालकवलित हो जाने के बाद निःसन्तान होने के कारण उनके स्नेह और प्रेम की सम्पूर्ण धारा पत्नी की ओर उन्मुख हुई । उनका विवाह बचपन में ही हो गया था। धर्मपत्नी कोई विशेष रूपवती नही थी, फिर भी द्विवेदीजी उनसे बहुत प्रेम करते थे। इसका एक प्रमुख कारण यह भी था कि धर्मपत्नी ने उन्हें कई बार कुकृत्य करने से रोककर सत्कर्म की ओर प्रेरित किया था। जब द्विवेदीजी ने रेलवे की नौकरी छोड़कर पुनः इस्तीफा वापस लेने की बात कही, तब उनकी पत्नी ने कहा थाः 'भला थूककर भी कोई चाटता है ?' पत्नी की इसी बात ने उन्हें रेलवे की नौकरी की ओर से विमुख कर दिया और उन्होंने 'सरस्वती' के माध्यम से हिन्दी-संसार में प्रवेश किया । तुलसीदासजी को जैसी धार्मिक अन्तः प्रेरणा उनकी स्त्री रत्ना ने दी थी, लगभग उसी प्रकार का परिवर्तनकारी कार्य आचार्यप्रवर द्विवेदीजी की पत्नी ने भी उनके जीवन में किया। यदि उस समय वे डेढ़ सौ रुपयों के मोह में फँसकर नौकरी का इस्तीफा वापस मँगवा लेती, तो हिन्दी-साहित्य मात्र एक रेलवे अफसर अथवा स्टेशन-मास्टर के पद के लिए अपना एक युगनिर्माता नेता खो बैठता। इस प्रकार, द्विवेदीजी की धर्मपत्नी ने जिस निःस्पृहता के साथ अपने पति का अवदान हिन्दीजगत् को दिया, जिसके लिए वह सर्वदा उनका आभारी रहेगा। यही नहीं, जब द्विवेदीजी ने साहित्य-रचना की दिशा में प्रयास शुरू किये, तब उनकी पत्नी ने ही उन्हें सस्ते और बाजारू साहित्य की रचना करने से रोका। द्विवेदीजी ने 'सुहागरात' नाम की एक पुस्तक लिखी थी। कामशास्त्र-विषयक यह पुस्तक जब उनकी स्त्री के हाथ लगी, तब उन्होंने इसकी रचना के लिए अपते पति को बहुत फटकारा। स्वयं द्विवेदीजी ने लिखा है :
"उसने मुझ पर वचन-विन्यास रूपी इतने कड़े कशाघात किये कि मैं तिलमिला उठा। उसने उन पुस्तकों की कॉपियों को आजन्म कारावास या कालापानी की सजा दे दी। वे उसके सन्दूक में बन्द हो गई। उसके मरने पर ही उनका छुटकारा इस