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द्विवेदी-युग की पृष्ठभूमि एवं परिस्थितियाँ [ २१ सहज स्वाभाविक घटना है। इसी प्रकार गोस्वामीजी द्वारा 'भारते यवन' का अनुवाद भी अत्यन्त स्वाभाविक दीखता है। उनकी शालीनता के मूल में भी देशभक्ति ही है और उनके इस भय से कि उनके अनुवाद से देशवासियों को लज्जा होगी, उनका देशप्रेम उद्भासित होता है। परन्तु, विज्ञापन और 'पुस्तक-स्वीकृति' या 'पुस्तकस्वीकार' अलोचना की कोटि में परिगणित न होंगे। इनमें कुछ. ऐसे भी 'पुस्तकस्वीकार' अवश्य मिलते है, जिनसे भारतेन्दु-युग की भाषागत मनोवृत्ति का उपयोगी परिचय मिलता है। उदाहरणार्थ, प्रस्तुत 'पुस्तक-स्वीकार' केवल विज्ञापन नही है : "हम अत्यन्त धन्यवादपूर्वक श्रीहृषीकेश भट्टाचार्य महोदय रचित कवितावली नामक पुस्तक स्वीकार करते है, इसमें १८ पृथक् २ विषयों पर भट्टाचार्य महाशय की कविता और पाण्डित्य का उदाहरण दिया गया है, इसका मूल्य केवल ४ आना है। सस्कृत, विशेष कर काव्य-रसिकों को यह ग्रन्थ बहुत ही मनोरंजक है । इसकी बहुत-सी कविता अँगरेजी-कविता से अनुवाद की गई है । हमको इस बात का विशेष हर्ष है, जो नूतन प्रणाली के संस्कृत विद्वानो ने इस बात की ओर मन दिया कि विदेशी भाषाओं मे जो कुछ चातुरी हो,उसका भी रसाकर्षण कर संस्कृत में कर लें..." इसमें 'मनोरंजक' 'काव्य-रसिक', 'नूतन प्रणाली', 'रसाकर्षण' आदि शब्द विशुद्ध साहित्यिक आलोचना के शब्द है। धीरे-धीरे इन्ही शब्दों से हिन्दी के उस आलोचना-प्रासाद का निर्माण होता है, जो हमारे देश की अनुपम विभूति है। __ जनवरी, १८८० ई० में 'हिन्दी-प्रदीप' का 'नाटकाभिनय' शीर्षक 'विज्ञापन' द्रष्टव्य है : "कोटि धन्यवाद ईश्वर का है जिसकी प्रेरणा से प्रयाग आर्य नाट्य सभा के मेम्बरों के जी में फिर अभिनय करने का उत्साह हुआ। यह अभिनय गत मास की ६ दिसम्बर शनिवार को रेलवे थियेटर में किया गया सयोगवश से अबकि बार जेतनी बात अभिनयोपयोगी है, वे सब आकर एकत्र हो गई, जैसा दिल्लीवासी लाला श्रीनिवास दास के पाण्डित्य का प्रकाश रूप रणधीर और प्रेम मोहनी नाटक वैसा ही हमारे पान वर्ग 'भी अब खूब मँज गये हैं...यह नाटक जैसी उत्तम रीति पर बाँधा गया है इस विषय में हमें कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है; क्योंकि प्रायः हमारे ग्राहकों में से उससे भलीभांति परिचित हैं केवल इसमें अभिनय में इतना ज्ञातव्य है कि सुखवासी लाल की कुटिलता नाथूराम का मारवाड़ीपन और जीवन की स्वामिभक्ति का अभिनय बहुत ही उत्तम रीति पर किया गया है।"...२ यदि उन सभी तत्त्वो की व्याख्या प्रस्तुत की गई होती,जो अभिनयोपयोगी थी,तो निस्सन्देह 'नाटकाभिनय' एक उच्च कोटि का नाट्यशास्त्रसम्बन्धी निबन्ध हुआ रहता । परन्तु, 'जेतनी बात' कही जानी चाहिए, उतनी बात यहाँ
१. हिन्दी-प्रदीप, १ जून, १९७९, ई० पृ० १६ । २. जनवरी १९८० ई०, जिल्द ३, संख्या ५, नाटकाभिनय, पृ० २ ।