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द्विवेदी-युग की पृष्ठभूमि एवं परिस्थितियाँ [ १७ सशक्त बनाकर हिन्दी-आलोचना के विकास के लिए जो राजमार्ग बनाया, वह हिन्दीसाहित्य के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। 'हिन्दी-प्रदीप' का युग हिन्दीपत्रकारिता का, हिन्दी-गद्य के विकास का और आधुनिक हिन्दी-आलोचना के आविर्भाव का ऐतिहासिक युग था। इस युग के निबन्धों में प्रचुर आलोचनात्मक सामग्री भी मिलती है, जिसकी ओर शायद ही किसी आलोचक ने ध्यान दिया है। अप्रैल, १८७८ ई० में 'हिन्दी-प्रदीप' में प्रकाशित 'वेद' शीर्षक निबन्ध भले ही आलोचनात्मक परिपक्वता से रहित हो, पर इसे हम परिचयात्मक आलोचना की श्रेणी में परिगणित करने में संकोच करेंगे। इस निबन्ध में 'वेद' शब्द की उत्पत्ति से वेदों के प्रतिपाद्य तक का उल्लेख है और यह बतलाया गया है कि मन्त्र और ब्राह्मण क्या हैं। इसी प्रकार, संहिता और मीमांसा आदि की भी चर्चा हुई है और यह कहा गया है कि वेद नित्य और अपौरुषेय है। इसी अंक (अप्रैल, १८७८ ई०) में 'देशी भाषाओं के पत्रों के विषय के कानून की समालोचना' भी प्रकाशित है, जो साहित्यिक महत्त्व नही रखती।
इसमें सन्देह नहीं कि आलोचना का विकास गद्य के विकास और माध्यम की परिपक्वता पर भी आधृत होता है। इसलिए इँगलैण्ड में भी जब नवजागरण-युगीन आलोचकों ने इतालवी एवं अभिजात आलोचकों से प्रेरणा लेकर अंगरेजी-आलोचना का सूत्रपात किया, तब उन्होंने भी इस बात की घोषणा की कि आलोचना की भाषा नार्मन फ्रेंच और लैटिन न होकर स्वदेशी अँगरेजी ही हो । सिडनी, स्पेन्सर, मल्कास्टर, पटनम प्रभृति ने इसी तथ्य पर बल दिया कि इंगलैण्ड की भाषा-सर्जनात्मक साहित्य की भाषा-न तो फ्रान्सीसी हो सकती है और न लैटिन। किसी भी देश की सर्जनात्मक ऊर्जा सहज अभिव्यक्ति के लिए स्वदेशी भूमिका की अपेक्षा करती है। शीर्ष कोटि के काव्य-बीज स्वदेश की सहज प्रशस्त एवं उर्वरा भूमि में ही अंकुरित एवं पल्लवित हो सकते हैं। मल्कास्टर सरीखे देशभक्त लेखकों ने भाषा-विषयक जिस नीति की घोषणा की, उसके परिणामस्वरूप अँगरेजी को अन्य यूरोपीय भाषाओं से नये-नये शब्द उपलब्ध हुए और आलोचनागत विश्लेषण एवं सैद्धान्तिक प्रतिपादनों के लिए अँगरेजी उपयुक्त माध्यम बनी। इसी प्रकार, भारतेन्दु-युग ने हिन्दी-आलोचना के आविर्भाव-काल मे भाषा की समस्या पर समधिक बल दिया और बार-बार इस बात की घोषणा की कि देश की सर्वतोमुखी उन्नति हिन्दी के विकास और प्रौढि के साथ सम्पृक्त है। 'सारसुधानिधि' के प्रथम अंक में भाषा को उन्नति का प्रधान आकर कहा गया है और बताया गया है कि यदि हम इसे आत्मा की दूती कहें, तो भी इसमें अत्युक्ति नहीं होगी। बड़े ही मर्मस्पर्शी ढंग से 'साहित्य' शीर्षक निबन्ध में कहा गया है कि भाषा के अरसज्ञ आधुनिक शिक्षित मनुष्य भाषा का इतना अधिक