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द्विवेदी युग की पृष्ठभूमि एवं परिस्थितियाँ [ १५ अतिरिक्त शब्दों का भण्डार भी रिवत ही था ।.... . हिन्दी के पास न कोई अपना इतिहास था, न कोश, न व्याकरण... साहित्य का खजाना खाली पड़ा था ।"१
साहित्य-क्षेत्र में फैले अभाव एवं अराजकता के इस युग में गद्य एवं पद्य दोनों ही क्षेत्रों में समान विशृंखलता थी । उर्दू, व्रजभाषा एवं अँगरेजी के साथ संघर्षरत हिन्दी का उस समय तक कोई निर्धारित स्तर नही बन पाया था । फिर भी, युगीन परिस्थितियो एवं निजी प्रतिभा के सहारे भारतेन्दु ने स्थिति को अपनी छतच्छाया में विशेष बिगड़ने नही दिया । तद्युगीन शिक्षा एवं उसके प्रभाव से परिवर्तित हो रहे जनमानस ने हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का प्रारम्भ होने में भरपूर सहयोग दिया । परन्तु, भारतेन्दु के अवसान से द्विवेदी युग के शुरू होने तक हिन्दी - साहित्य को अवैचारिक शून्यता तथा नेताविहीन मनोदशा के दलदल में फँस जाना पड़ा । तत्कालीन परिस्थिति को डॉ० शंकरदयाल चौऋषि ने इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है :
" द्विवेदी - भास्कर के उदित होने के पूर्व एवं भारतेन्दु के अरत होने के पश्चात् १५-१६ वर्ष का समय हिन्दी भाषा का अराजकता - काल था । सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आन्दोलनों एवं परिस्थितियों से देश में जो जनचेतना उद्भूत हुई थी, उसकी प्रक्रिया स्वरूप हिन्दी साहित्य में द्रुतगति से सृजन कार्य प्रारम्भ हुआ था । उस समय 'परम स्वतन्त्र न सिर पर कोई' वाली कहावत भाषा के क्षेत्र में पूर्णत: चरितार्थ हो रही थी । शासक - विहीन राज्य की उच्छृंखलता, स्वेच्छाचारिता, अव्यवस्था तथा अस्थिरता का बोलबाला था । शब्दों का अकाल, व्याकरण के नियमों की शिथिलता, नेतृत्वहीनताजन्य सन्निपात - बकवास एवं हिन्दी-उर्दू संघर्ष - ये चार बड़ी समस्याएँ थी । इनमें से प्रथम दो का सम्बन्ध भाषा के अन्तरंगपन से है तथा अन्तिम दो का सम्बन्ध वाह्य परिस्थितियों से ।"२
(क) उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशक :
पं० बालकृष्ण भट्ट द्वारा सम्पादित 'हिन्दी- प्रदीप' के तीसरे अंक ( १ नवम्बर, १८७७ ई०) में प्रकाशित 'भारत - जननी और इंगलैण्डेश्वरी का संवाद' भारतेन्दु-युग की मनोवृत्ति और भावबोध पर प्रभूत प्रकाश डालता है । इंगलैण्डेश्वरी से असभ्य और दासी
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१. श्रीसिद्धिनाथ तिवारी : द्विवेदीजी की देन', 'ज्योत्स्ना', दिसम्बर, १९५३ ई०, पृ० १३ ।
२. डॉ० शंकरदयाल चौऋषि : द्विवेदी युग की हिन्दी गद्यशैलियों का अध्ययन', पृ० ४५० ।