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२२८ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
द्विवेदीजी की प्रकृति-वर्णन - सम्बन्धी कतिपय मौलिक कविताएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और कुछ की रचना खड़ी बोली में हुई है । ऐसी कविताओं में 'प्रभातवर्णनम्', 'सूर्यग्रहणम्', 'शरत्सायंकाल.', 'वसन्तः', 'कोकिलः ' आदि की चर्चा की जा सकती है । इनमें भी द्विवेदीजी की संस्कृत-पद्यावली विशेष प्रसादयुक्त एवं काव्योचित है ।
यथा :
कुशेशयैः स्वच्छजलाशयेषु वधू मुखाम्भोजदलैगं हेषु वनेषु पुष्पैः रचितः सपर्य्या,
तत्पादसंस्पर्शनया कृतासीत् ॥ १
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इसके विपरीत, उनकी खड़ी बोली में रचित प्रकृति-सौन्दर्य-सम्बन्धी कविताओ में अपेक्षित प्रवाह एवं काव्यात्मकता के दर्शन नही होते । डॉ० उदयभानु सिंह ने द्विवेदीजी की ऐसी कविताओं के सन्दर्भ में लिखा है :
" निरूपित और निरूपयिता की दृष्टि से द्विवेदीजी के प्रकृति-वर्णन में केवल दृश्य-दर्शक - सम्बन्ध की व्यंजना हुई है, तादात्म्य - सम्बन्ध की नहीं । यही कारण है कि उनकी प्रकृति-विषयक कविताओं में गहरी अनुभूति की अपेक्षा वर्णनात्मकता ही अधिक है । २
खड़ी बोली में लिखी गई द्विवेदीजी की प्रकृति-सम्बन्धी कविताएँ अधिकांशतः बालोपयोगी स्तर की हैं । यथा 'कोकिल' का यह वर्णन द्रष्टव्य है :
atree अति सुन्दर चिड़िया है,
सच कहते हैं, जिस रंगत के
अति बढ़िया है । कुँवर कन्हाई,
उसने भी वह रंगत पाई ॥ ३
इस एक उदाहरण के आधार पर ही यह निष्कर्ष दिया जा सकता है कि द्विवेदीजी की प्रकृति-वर्णन सम्बन्धी खड़ी बोली की कविताएँ सफल नहीं हो सकी है। प्रमुख रूप सेद्विवेदीजी ने साहित्यिक एवं सामयिक - राष्ट्रीय समस्याओं, अध्यात्म प्रकृति एवं सौन्दर्य को ही अपनी कविता का विषय बनाया है एवं सामयिक विषयों की भी उपेक्षा नहीं कर सके। इस कारण, उनकी कविताओं का
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साथ-ही-साथ, वे अन्य उपयोगी
एक पृथक विभाग इन विविध विषयों पर आश्रित भी माना जा सकता है । इस कोटि
१. देवीदत्त शुक्ल : (सं०) 'द्विवेदी - काव्यमाला', पृ० १६९ ।
२. डॉ० उदयभानु सिंह : 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और अनका युग', पृ० ११५
३. 'सरस्वती', सितम्बर, सन् १९०१ ई० पू० ३००।
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