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कविता एवं इतर-साहित्य [ १९९
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"भारतेन्दु के अस्त और 'प्रताप' के तिरोहित होने पर जब हिन्दी-साहित्य पतवारहीन नौका की भांति असहाय होकर डगमगाने लगा, उस समय द्विवेदीजी ने आगे आकर हिन्दी का नेतृत्व ग्रहण किया। उन्होंने खड़ी बोली को समस्त साहित्यिक अभिव्यक्तियों का माध्यम बनाकर गद्य-पद्य की एक पक्की व्यवस्था की और दोनों प्रणालियों द्वारा पूर्व और पश्चिम की, पुरातन और नूतन, स्थायी और अस्थायी ज्ञानसम्पत्ति सम्पूर्ण हिन्दीभाषा-भाषी प्रान्तों में मुक्त हस्त से वितरित की। इससे कविता का चोला ही बदल गया और सतोगुण की सन्यासिनी के रूप में वह हिन्दी-रगमंच पर प्रकट हुई।"
हिन्दी कविता में विषयगत क्रान्ति का सूत्रपात एवं संचालन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कर दिया था और श्रीधर पाठक ने भ्रण रूप में भाषाई क्रान्ति को भी जन्म दे दिया था। परन्तु, हिन्दी-कविता की भाषा के रूप में खड़ी बोली का प्रतिष्ठान एवं युगनिर्देश का सारा कार्य द्विवेदीजी ने किया। उनके आते ही समस्त हिन्दी-जगत् में भाषा-सम्बन्धी आन्दोलनों का एक दौर शुरू हो गया। गद्यभाषा का परिष्कार और सुधार का ऐतिहासिक कार्य करने के साथ ही द्विवेदीजी ने कविता के लिए भी भाषा-नीति के नवीन मार्ग का सन्धान किया। उन्होंने व्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली को कविता का अभिव्यक्ति-साधन बनाने की अपील की। डॉ० शितिकण्ठ मिश्र ने लिखा है:
"व्रजभाषा इतनी संकुचित और रीतिग्रस्त हो गई थी कि नवीन भावों और काव्यप्रयोगों के लिए उसमें स्थान नहीं रह गया था। एक ही विषय पर सैकड़ों वर्षों से सैकड़ों कवियों ने इतना लिख लिया था कि कोई नया कवि उसमें मौलिकता या नवीनता नहीं ला सकता था। अतः, द्विवेदीजी ने आदेश दिया कि पुरानी लकीर का पीटना बन्द होना चाहिए।"२
उनके पूर्व तक गद्य की रचना खड़ी बोली में होती थी और कविताएँ व्रजभाषा में लिखी जाती थी। द्विवेदीजी ने व्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली के ही सर्वत्र प्रयोग पर बल दिया। वे गद्य और पद्य की अलग-अलग भाषा का होना समीचीन नहीं मानते थे। उन्होने स्पष्ट रूप से घोषणा की:
"गद्य और पद्य की भाषा पृथक-पृथक न होनी चाहिए। हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जिसके गद्य में एक प्रकार की और पद्य में दूसरे प्रकार की भाषा लिखी जाती है। सभ्य समाज की जो भाषा हो, उसी भाषा में गद्य-पद्यात्मक साहित्य होना चाहिए।"
१. श्रीअशोक महाजन : 'द्विवेदी-काव्य : प्रयोजन और विषय', 'भाषा' : द्विवेदी
स्मृति-अंक, पृ० ६३। २. डॉ. शितिकण्ठ मिश्र : 'खड़ी बोली का आन्दोलन', पृ० २१५ । ३. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'रसज्ञरंजन', पृ० १९।