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द्विवेदी युग की पृष्ठभूमि एवं परिस्थितियाँ [ ७ साहित्य में राजनीतिक वातावरण की स्पष्ट छाप दीख पड़ती है । डॉ० सुषमा नारायण के शब्दों में :
"राष्ट्रवादी विचारधारा प्रबल रूप में सम्पूर्ण देश में छा गई थी, प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता की धाक भारतीय मस्तिष्क में बैठाई जा चुकी थी और साम्राज्यवादियो की निरंकुशता से मुक्ति पाने के लिए अतीत गौरव एक सुदृढ रक्षाकवच के समान था । अतः, हिन्दी साहित्य में भी भारत के अतीतकालीन आध्यात्मिक, नैतिक और भौतिक उत्कर्ष के सुन्दर, प्रभावोत्पादक, पुराण तथा इतिहास- सम्मत विषय चुने गये । अतीत गौरव की तुलना में वर्त्तमान दुर्दशा की अनुभूति मे तीव्रता आई । भौगोलिक एकता एवं मातृभूमि-स्तवन पर विशेष बल दिया गया । वर्त्तमान के अभावोंराजनीतिक अभिशाप, सामाजिक कुरीतियाँ, आर्थिक शोषण, सांस्कृतिक हीनता - का चित्रण किया गया । । राष्ट्रवाद के भावात्मक पक्ष स्वदेशी आन्दोलन, तिलक की उम्र राष्ट्रवादिता, होमरूल - आन्दोलन, अहिसात्मक सत्याग्रह और बलिदान की भावना की साहित्य मे अभिव्यक्ति की गई। भारत के सुन्दर भविष्य के स्वप्न सँजोये गये ।" "
युगीन राजनीतिक घटनाओ से हिन्दी साहित्यकारों के साहचर्य की स्पष्ट सूचना उपर्युक्त पंक्तियों मे मिल जाती है ।
सामाजिक परिस्थितियाँ : द्विवेदी युग के प्रारम्भ होने तक भारत की सामाजिक अवस्था राजनीतिक अराजकता के समकक्ष ही विषम हो चुकी थी । भारतीय समाज विनाशशील प्रवृत्तियों को बड़ी ही प्रसन्नता के साथ ग्रहण कर रहा था, इसके प्रमाणस्वरूप समाज के सभी वर्गो में हुए पतन को सामने रखा जा सकता है। अपनी प्राचीन विशेषताओं से पीछा छुड़ाकर भारतीय समाज पूरी तरह वर्गगत एवं साम्प्रदायिक विषमताओं का प्रतीक बन चुका था । साथ ही, अशिक्षा के कारण भारतीय समाज अन्धविश्वासों एव कुप्रथाओं का अड्डा बन गया था । ऐसी सामाजिक कुरीतियो में बाल विवाह, बेल विवाह, बहुविवाह, मांस भक्षण, मदिरा सेवन, धार्मिक अन्धविश्वास, छुआछूत, पारस्परिक फूट और कलह आदि की चर्चा की जा सकती है, जिनके कारण इस देश की अधोगति हो रही थी । उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध काल की सामाजिक अवस्था के सम्बन्ध मे डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय की निम्नांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
"एक ओर तो भारतीय जीवन सुव्यवस्थित एवं सुदृढ शिक्षा-पद्धति के अभाव के कारण अनेक मध्ययुगीन कट्टर, गतिहीन, रूढिबद्ध, असामाजिक और अनुदार अन्धविश्वासों, कुरीतियों और कुप्रथाओं से भरा हुआ था, समाज में कूपमण्डूकता का
१. डॉ० सुषमा नारायण : 'भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की हिन्दी - साहित्य में अभिव्यक्ति' पृ० ६३ ।