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१९४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तिव एवं कर्तृत्व
अभिरुचि का परिष्कार करना और सर्जनात्मक साहित्य के रचयिताओं का पथ-प्रदर्शन करना भी अपना धर्म मानते हैं । इसी कारण देश-विदेश और साहित्य में जहाँ भी उपयोगी सामग्री उपलब्ध होती है, वे हिन्दी के कवियों और पाठको के लिए प्रकाशित करने में संकोच नहीं करते । जब अँगरेजी के 'डेली क्रॉनिकल' नामक समाचार-पत्र में ब्राउनिंग का एक पत्र प्रकाशित हुआ, तब द्विवेदीजी ने धड़ल्ले से उसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करते हुए कहा कि ब्राउनिंग की यह चिट्ठी हिन्दी के कवियों और लेखकों के बड़े काम की है । इस पत्र में ब्राउनिंग ने कहा था कि 'मैंने रुपया कमाने की नीयत से एक अक्षर भी नहीं लिखा। इस दिशा में यदि आपको मेरी आमदनी के विषय में भ्रम हो जाय, तो आश्चर्य की बात नहीं । मेरी पुस्तकों का प्रचार अमेरिका में बहुत है । पर, इस प्रचार की बदौलत मुझे एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलती। मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूँ कि मेरे कई साहित्यसेवी मित्र अपनी एक ही कविता, नाटक या उपन्यास की बिक्री से जितना रुपया कमा लेते है, उतना मैं अपनी सारी पुस्तकों की बिक्री से नहीं कमा सका । तिसपर भी मुझे अपना ही ढंग पसन्द है— जो मार्ग मैंने अपने लिए पसन्द किया है, उससे मैं भ्रष्ट नहीं होना चाहता । स्वयं रुपये के लिए और लोग खुशी से लिखें । मैने न लिखा और न लिखूँगा ।' १ स्वयं द्विवेदीजी का जीवन-दर्शन ब्राउनिंग की उस अभिवृत्ति के अनुकूल है, जो उपर्युक्त पंक्तियों में रूपायित है । द्विवेदीजी रुपया कमाने की नीयत से न तो किसी की प्रशंसा करते थे और न किसी की निन्दा |
द्विवेदीजी का अभिमत है कि समीक्षक का कार्य महत्त्व की ही नहीं, अत्यन्त कठिन भी है । वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि कतिपय आलोचक अपने को सर्वज्ञ मानकर प्रत्येक पुस्तक की समालोचना करने में जरा भी संकोच नही करते । द्विवेदीजी उन समालोचकों की प्रशंसा करते है, जो सचमुच विद्वान् है और जो अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य के प्रति जागरूक हैं । कुछ लोग स्वयं तो कवि नहीं होते, परन्तु अनेक काव्यों का रसास्वादन करने तथा श्रेष्ठ समालोचकों की आलोचना पढ़ने के कारण लिखने की योग्यता हासिल कर लेते हैं । द्विवेदीजी कहते हैं कि ऐसे लोग चाहें तो 'काव्य की विचारपूर्वक आलोचना' २ कर सकते है । उनके मन्तव्यानुसार समीक्षक न तो अनुचित प्रशंसा करना और समीक्ष्य ग्रन्थ का विज्ञापन करना अपना कर्त्तव्य समझता है. और न अनुचित निन्दा करना । 'ईर्ष्या, द्व ेष अथवा शत्रुभाव के वशीभूत होकर किसी . की कृति में अमूलक दोषोद्भावना करना उससे भी बुरा काम है । 3
१. महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श', पृ० १३ ।
२. उपरिवत्, पृ० ४५ । ३. उपरिवत् ।