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________________ '१९० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व रुद्रट ने इसी प्रतिभा के दो रूप बतलाये हैं और उनके सहज रूप को ही उत्पाद्य की अपेक्षा श्रेष्ठतर कहा है। सहज शक्ति अपने-आप उत्कर्षाधायक एवं उत्ताद्या की हेतु है। उत्पाद्या बाद में होनेवाली व्युत्पत्ति से बड़े कष्ट से सिद्ध होती है। ___ इसमें सन्देह नहीं कि कविता प्रसादगुणसम्पन्न, आडम्बरविहीन, सारयुक्त एवं प्रमंगानुकूल हो । किन्तु, यह भी ध्यातव्य है कि कई कारणों से कविता कभी-कभी दुरूह, अनेकार्थक एवं अस्पष्ट भी हो जाया करती है । वस्तुतः,कविता का केवल प्रसादगुण-सम्पन्न होना अपने-आप में कोई बड़ी चीज नहीं है। जटिल और संश्लिष्ट अनुभूतियों की अभिव्यंजना प्रायः संश्लिष्ट हो जाया करती है और सरल भाषा मे व्यक्त होकर भी औसत पाठक को रहस्यानुभूति शीघ्र नहीं होती। जो अवाङ्मनोगोचर है, जो अकथ और अनिर्वचनीय है, उस सत्य की अभिव्यक्ति के लिए चिरपरिचित शब्द और सम्प्रेषण के घिसे-पिटे माध्यम अपर्याप्त होते हैं । कभी-कभी पाठक की भाषागत अयोग्यता के कारण रचना कठिन जान पड़ती है और साहित्यकार की बातें हृदयंगम नहीं हो पातीं। इसके अतिरिक्त, कतिपय साहित्यकारों की वह प्रवृत्ति,भी जिसके कारण वे व्यक्तिगत सन्दर्भो का प्रयोग भरते हैं अथवा पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए भारी शब्दों से अपनी रचनाओं को बोझिल बना डालते है, रचना को दुरूह बना डालती है। इसी प्रवृत्ति के कारण कुछ साहित्यकारों की रचनाओं मे सूक्ष्म संकेत और अनेकानेक पाण्डित्यपूर्ण सन्दर्भ पाये जाते हैं । __ पूर्व और पश्चिम के आलोचकों ने इसी कारण, औचित्य को यथेष्ट महत्त्व दिया है और बताया है कि सरल-सुगम भावों की अभिव्यक्ति सरल-सुगम भाषा में ही सुशोभन होती है और जहाँ जटिलतर अनुभूतियों की अभिव्यक्ति अभिप्रेत होती है, वहाँ सम्प्रेषण दुरूह हो जाया करता है। इलियट ने इस बात पर प्रभूत बल दिया है कि प्रत्येक युग की अपनी विशिष्ट अनुभूतियों का अपना सत्य, अपना जीवन-दर्शन और अपना व्यक्तित्व हुआ करता है। इसी कारण, प्रत्येक युग की अपनी विशिष्ट अभिव्यंजना-शैली हुआ करती है। ऐसी शैली के अभाव में ही साहित्य में अनौचित्य, पुनरुक्ति, निष्प्राण काव्यबिम्बों और विशेषणों का विनियोग आदि दोष आविर्भूत होते हैं । यदि उपरिनिर्दिष्ट कसौटी पर हम आधुनिक काव्य को परखे और तथाकथित नई कविता का मूल्यांकन करें, तो इसमें प्रयुक्त 'चमत्कारपूर्ण' और अभिनव विम्बों की अनिवार्यता स्पष्ट हो जायगी और नई कविता की सार्थकता का एहसास होने लगेगा। द्विवेदीजी को छायावादी कवियों से प्रायः वैसी ही शिकायत है, जैसी डॉ० जॉनसन को मेटाफिजिकल कवियों से थी। जहाँतक द्विवेदीजी के आधारभूत तर्को का सम्बन्ध है, हमें स्वीकार्य होना चाहिए कि छायावादी कविता का प्रारम्भ भी कुछ उसी प्रकार
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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