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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १८९: बड़े महत्त्व के हैं। इसी प्रकार, भरतमुनि के अनुसार प्रसाद, माधुर्य, ओज, पद-- सौकुमार्य आदि गुण उल्लेखनीय हैं। 'काव्यालंकार' के रचियता भामह ने कहा कि 'बुद्धिमान् लोग माधुर्य और प्रसाद को चाहते हुए समासयुक्त बहुत पदों का प्रयोग नहीं करते ।' दण्डी ने वैदर्भ मार्ग के जिन दस गुणों का उल्लेख किया है, उनमें प्रसाद, माधुर्य, सुकुमारता आदि गुण भी समाहित हैं।
द्विवेदीजी की काव्यहेतु-सम्बन्धी अवधारणाएं भी भारतीय काव्यशास्त्र की चिरपरिचित अवधारणाएं हैं। भामह ने तो साफ-साफ कहा है कि गुरु के उपदेश से तो जडबुद्धि भी शास्त्र पड सकता है, किन्तु काव्य तो किसी प्रतिभाशाली से ही बन पाता है। इसी कारण भारतीय काव्यशास्त्र मे इस प्रतिभा को नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि कहा गया है। भामह भी काव्यसाधनों की चर्चा करते हुए इस तथ्य की उद्घोषणा करते हैं कि काव्य-रचना के अभिलाषी पुरुष को शब्द, छन्द, कोष-प्रतिपादित अर्थ, ऐतिहासिक कथाएँ, लोकव्यवहार-युक्ति और कलाओं का मनन करना चाहिए । एक अन्य कारिका मे उन्होंने अभ्यास पर बल देते हुए कहा है कि शब्द और अर्थ का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर काव्यज्ञों की उपासना कर और अन्य लेखकों की रचनाओं को देखकर काव्य-प्रणयन में प्रवृत्त होना चाहिए। दण्डी भी पूर्वजन्म के संस्कारों से सम्पन्न ईश्वरप्रदत्त स्वाभाविक प्रतिभा को कवित्व-शक्ति का आधार मानते है, पर साथ ही विविध विशुद्ध ज्ञान से युक्त अनेक शास्त्रों के ज्ञान को तथा अत्यन्त उत्साहपूर्ण दृढ़ अभ्यास को कवि के लिए अनिवार्य घोषित करते हैं। दण्डी उन प्राचीन आचार्यों में परिगणित होते हैं, जिनके अनुसार व्युत्पत्ति प्रतिभा का स्थान भले ही न ले, पर उससे 'वाग्देवी सरस्वती निश्चय ही अलभ्य अनुग्रह करती ही है।' इस कारण दण्डी की सलाह है कि कवित्व-जनित यश चाहनेवालों को आलस्यरहित होकर श्रमपूर्वक वाग्देवी सरस्वती की निरन्तर उपासना करनी चाहिए। आचार्य द्विवेदी प्रतिभा को कवित्व-शक्ति का मूल अथवा बीज मानते हैं, परन्तु दण्डी के अनुसार काव्य-निर्माण का सामर्थ्य कम होने पर भी काव्यानुशीलन के प्रयास में परिश्रमी मनुष्य पण्डित-मण्डलियों में रसास्वादन करने में समर्थ होते हैं। द्विवेदीजी की, काव्यहेतु एवं काव्य-प्रयोजन-सम्बन्धी मान्यताएँ आचार्य रुद्रट और आचार्य वामन की एतद्विषयक मान्यताओं से मिलती-जुलती हैं। 'काव्यालंकार' में आचार्य रुद्रट ने सुन्दर काव्य के निर्माण के लिए शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास. इन तीनों को आवश्यक बतलाया है। उनके कथनानुसार, "जिसके होने पर स्वस्थ चित्त में निरन्तर अनेक प्रकार के वाक्यों की स्फत्ति होती है तथा जिसकी विद्यमानता में शीघ्र ही अर्थ-प्रतिपादन में समर्थ पद प्रस्फुटित होते हैं, उसको शक्ति कहते हैं।" दण्डी आदि प्रमख आलंकारिकों ने इसी शक्ति को प्रतिभा के नाम से अभिहित किया है।